रविवार, 28 जून 2015

अपनी भावनाओं को बड़े बच्चों के साथ भी साझा करें

हमारे ग्रंथ भी इस रिश्ते की नाजुकता को परिभाषित करते है, उनके अनुसार यह रिश्ता प्रत्यंचा की तरह होता है, ढीली रह गयी तो लक्ष्य-भेद नहीं हो पाएगा और ज्यादा कस गयी तो टूटने का भय। कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने पूछा, ठाकुर जी एक बात बताएं, क्या आपने कभी खुल कर बिट्टू से अपने प्यार का इजहार किया है ? नहीं ना !    

रविवार, सूकून का दिन। इसलिए प्रात: भ्रमण के पश्चात ठाकुर जी को साथ ही ले आया चाय के लिए। तभी छोटे बेटे को अपनी माँ से बात करते देख ऐसे ही मैंने पूछ लिया क्या बात है, पर जवाब आया कि कुछ नहीं ऐसे ही ! यह देख ठाकुर जी बोले, सभी घरों में ऐसा ही हाल है। बाप की जगह माँ को ही विश्वास में लिया
जाता है। कोई भी बात हो माँ से ही शेयर की जाती है और तो और इन्हें सारे दिन भले ही भूल जाएं पर मदर्स डे जरूर याद रहता है। मैंने पूछा, क्यों कोई ख़ास बात हुई है क्या? ठाकुर जी बोले, नहीं ख़ास तो नहीं पर पिछले दिनों फादर्स डे भी तो आया था पर मेरे बिट्टू ने मुझे विश तक नहीं किया। शर्मा जी, इसे अन्यथा ना लें,  ऐसी बातों को मैं बाज़ार के चोंचले ही मानता हूँ पर पता नहीं क्यों दिल में एक उत्सुकता, एक चाहत रहती है कि बेटा, बाप से अपने प्यार का इजहार तो करे !         

बात हल्की-फुल्की थी पर उसमें कहीं गंभीरता भी थी। आज भले ही नई पीढ़ी में बाप-बेटे एक दूसरे के नजदीक आ गए हों, उनका व्यवहार कुछ दोस्ताना हो गया हो पर अभी भी अधिकांश परिवारों में बेटे अपने पिता से बात करने में झिझकते हैं। माँ से ही अपनी समस्यायों को शेयर करने में उन्हें सहूलियत होती है। मैं
अपनी तरफ देखता हूँ तो पचास पार करने के बावजूद बाबूजी से कोई बात करने में दस बार सोचना पड़ता था, एक झिझक सदा तारी रहती थी। इसीलिए माँ को सदा ढाल बनाया जाता था। पर ऐसा नहीं था कि उनको हमारा ध्यान ना रहता हो, वे भी माँ के मार्फ़त ही हमारी जानकारी हासिल किया करते थे। हमसे लगाव तो बहुत था पर जाहिर नहीं करते थे। आज के दिन बदलाव आया है, रिश्तों की बर्फ पहले की तरह एकदम ठोस नहीं रह गयी है। बच्चे अपने मन की बात सामने रखने लग गए हैं। यही बात मैंने ठाकुर जी से भी कही कि भले ही आपस में वार्तालाप न होता हो पर एक-दूसरे की चिंता किसे किस दिन नहीं रहती ? इस लिहाज से तो हर दिन फादर्स डे है। 

हमारे ग्रंथ भी इस रिश्ते की नाजुकता को परिभाषित करते है, उनके अनुसार यह रिश्ता प्रत्यंचा की तरह होता है, ढीली रह गयी तो लक्ष्य-भेद नहीं हो पाएगा और ज्यादा कस गयी तो टूटने का भय।  कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने पूछा, ठाकुर जी एक बात बताएं, क्या आपने कभी खुल कर बिट्टू से अपने प्यार का इजहार किया है ? नहीं ना ! तो उससे बात करने की आप ही पहल कर देखिए, उसके प्रति अपने प्यार को खुल कर सामने आने दीजिए, उसकी समस्यायों का पता कर हल सुझाईये, खेलों, फिल्मों जैसे हलके-फुल्के विषयों पर बातें करिए, अपनी किसी बात को उससे शेयर करें उसके बारे में राय पूछें। अपने बुर्जुआ खोल से बाहर आ एक मर्यादित दोस्ताना माहौल का निर्माण करें।  मुझे विश्वास है कि अगले फादर्स डे का उसे बेसब्री से इंतजार रहेगा।      
            

बुधवार, 24 जून 2015

दाढ़ी बनाएं, मूड़े नहीं

अपने चेहरे पर सब को नाज होता है, इसे हर कोई दिलकश बनाए रखना चाहता है।  पचासों तरह के जतन किए जाते हैं इसे संवारने के वास्ते। पर कभी-कभी जाने-अनजाने इस पर ज्यादती भी हो जाती है खासकर दाढ़ी बनाते समय, जब लोग समयाभाव के कारण इसे बनाने की बजाए "मूड़ने " लगते है ! 

पिछले रविवार को योग शिविर से लौटते हुए ठाकुर जी के यहां रुक गया। वे क्षौर-कर्म निपटा रहे थे। उसी दौरान देखा कि उन्होंने तीन बार चेहरे को रेजर से 'खुरचा'। जब मुंह वगैरह धो कर बैठे तो मैंने पूछा तीन-तीन बार क्यों दाढ़ी बनाते हैं ? जब कि यह काम ज्यादा से ज्यादा दो बार में हो जाता है। ठाकुर जी बोले, नहीं तीसरी बार ही चेहरा पूर्णतया बालों से मुक्त हो पाता है।   

तभी ऐसा लगा कि ढाढी को लेकर भी काफी असमंजस में हैं लोग ! वैसे तो हर इंसान अपने चहरे को सदा दिलकश देखना चाहता है, उसके लिए पचासों यत्न भी करता है। पर इसी सार-संभाल में उस पर ज्यादती भी

करता रहता है। अब दाढ़ी की ही बात को लें, जिन्हें रखने का शौक है वे तो उसे सजा-संवार कर ही रखते हैं। जिन्हें सफाचट रहना अच्छा लगता है, उनमें से कई नाई का द्वार खटखटाते हैं पर अधिकांश घर पर खुद ही इसे मुसीबत समझ कर हटाते रहते हैं। जैसे ठाकुर साहब जो दाढ़ी बना नहीं रहे थे उसे मूड़ रहे थे। बिना यह सोचे कि इस तरह चेहरे की चमड़ी पर विपरीत असर पड़ता है। दाढ़ी बनाते समय हरदम हलके हाथ से रेजर चलाना चाहिए नाकि दबाते हुए। 

दाढ़ी बनाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि चेहरे के बाल अच्छी तरह गीले हों, यदि उन्हें कम से कम तीन-चार मिनट तक भीगा रहने दिया जाए तो वे काफी पानी सोख लेते हैं और ढीले पड़ जाते हैं जिससे उन्हें आसानी से काटा जा सकता है। ऐसे में तो किसी क्रीम या साबुन की भी जरुरत नहीं रहती। यदि क्रीम लगा कर शेव की जाती है तो जरूरी नहीं कि वह मंहगी ही हो। क्रीम वह अच्छी होती है जो एक लेप की तरह बालों पर परत बनाए जिससे बालों को ज्यादा से ज्यादा नमी मिले, चमड़ी स्नेहित हो सके। इसके लिए रेजर के इस्तेमाल के पहले क्रीम को चेहरे पर डेढ़-दो मिनट तक लगा रहने देना चाहिए। ज्यादा झाग बनाने वाली क्रीम या साबुन ठीक नहीं रहते। उनसे बालों को यथोचित नमी नहीं मिल पाती।  ध्येय है बालों की नर्माहट, बाकी सब बेकार ही है। बाल जितने नरम होंगे उतना ही ब्लेड का घर्षण कम होगा, उतना ही चमड़ी का छिलना कम होगा, उतनी ही ब्लेड या रेजर की उम्र बढ़ेगी। सही बात तो यह है कि मंहगी क्रीम या साबुन लेने से अच्छा है कि एक बढ़िया रेजर लिया जाए। कोई जरूरी नहीं कि वह दो या तीन ब्लेड वाला हो पर हो अच्छे स्तर का। कई बार हम कुछ भोथरे हो जाने पर भी उसका इस्तेमाल करते रहते हैं जोकि चेहरे की त्वचा के लिए काफी हानिकारक होता है। ऐसे ही ब्लेड से त्वचा में जलन या खराश होने लगती है। इसीलिए एक निश्चित अवधि के बाद उसे बदल देना चाहिए। दाढ़ी बनाते समय भी उसे गर्म पानी में, हो सके तो डेटॉल मिले पानी में डुबा कर साफ करते रहना चाहिए जिससे उसमें लगे बाल, साबुन का लेप इत्यादि साफ हो जाएं। 

सबसे बड़ी बात यह है कि हम चेहरे के बालों की उगने की दिशा के बारे में अनजान होते हैं। सब को लगता है कि बाल एक ही दिशा में उगे हुए हैं जबकि ये अलग-अलग चेहरे पर अलग-अलग ढंग से अलग-अलग दिशा में उगते हैं। इसको आसानी से परखा जा सकता है। इसलिए बेहतर है कि रेजर या ब्लेड को सीधे-उलटे न चलाया जाए। कभी भी चहरे को अंडे के छिलके की तरह चिकना करने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए इससे चमड़ी की परत को बहुत नुकसान पहुंचता है। बालों का उगना एक सतत क्रिया है दाढ़ी बनाते ही बालों का बढ़ना फिर शुरू हो जाता है तो फिर क्यों चमड़ी पर जुल्म ढाना ! 

"शेव" करते समय यदि हम कुछ बातों का ध्यान रखें तो यह हमारे ही चेहरे के लिए फायदेमंद होगा। जैसे शेव के पहले बाल अच्छी तरह भीगे हुए हों। क्रीम या साबुन की परत चहरे पर डेढ़-दो मिनट लगी रहे। रेजर हलके हाथ से चलाया जाए। जिससे वह सिर्फ बालों को हटाए नाकि त्वचा को खुरचे। कभी भी सूखी और ठंडी त्वचा पर रेजर ना चलाएं। शेव के दौरान बीच-बीच में उसे साफ़ भी करते रहें। किसी और का रेजर इस्तेमाल ना करें। क्रीम को समय-समय पर बदलते रहें जिससे अपनी त्वचा के अनुरूप इसका चुनाव हो सके। शेव करने के बाद चेहरे को गुनगुने पानी से साफ़ कर कोई लोशन लगा लें। लोशन की जगह पानी में डेटॉल जैसी किसी चीज की कुछ बूँदें भी वही काम करेंगी। फिर ठंडे पानी के छींटे मार चेहरा धो लें।                    

बुधवार, 17 जून 2015

दिल्ली का धौला कुआँ, कहाँ है धौलापन?

धौला कुआँ, पहले  
दिल्ली का धौला कुआँ। कभी न कभी हर दिल्लीवासी यहां से गुजरता ही है। चाहे पंजाबी बाग़, राजौरी गार्डन से किसी को दक्षिणी दिल्ली जाना हो या फिर चाणक्यपुरी वालों को हवाई यात्रा के लिए हवाई अड्डे जाना हो सबको इसके दर्शन कर ही जाना पड़ता है। एक तरफ मोती बाग़, दूसरी तरफ दिल्ली कैंट, बीच से पालम हवाई अड्डे के लिए गुजरती सड़क। राजस्थान और हरियाणा के लिए बसों का शहर के अंदर मुख्य अड्डा। दिल्ली गेट, कश्मीरी गेट, अजमेरी गेट, चांदनी चौक, कनॉट प्लेस की तरह ही इस नाम के भी आदी हो चुके हैं लोग पर अनजान हैं इसकी जानकारी के बारे में। कारण भी तो है। किसी जगह का नाम किसी विशेष परिस्थिति या कारण या जगह की विशेषता के कारण पड़ जाता है या रख दिया जाता है। पर आज समय की मांग के अनुसार  महानगरों और मेट्रो शहरों का भूगोल इतनी तेजी से बदल रहा है कि वहाँ के रहने वाले ही यदि किसी इलाके की तरफ कुछ अरसे के बाद जाते हैं तो जगह को कुछ तो बदला हुआ ही पाते हैं। और इस जगह पर तो इतने बदलाव हुए हैं कि आठ-दस साल पहले धौला कुआँ को देखने वाले को आज इसे देख हैरत होती है। तो करीब दो सौ साल पहले बने कुएं की क्या बिसात। कौन सा कुआँ, कैसा कुआँ ?       

करीब दो सौ साल पहले यहां के एक छोटे से इलाके, लाल किले से पालम तक, पर राज करने वाले शाह
धौला कुआँ का उड़न-पथ 
आलम द्वितीय (1761-1806) द्वारा जन-हित के लिए बनवाए गए इस कुंए का नाम धौला कुआं यानी सफ़ेद कुआं यहां पाए जाने वाली सफ़ेद रेत के कारण पड़ा बताया जाता है। शाह आलम अक्सर अपनी छोटी सी रियासत का चक्कर लगाया करता था। यह भी एक वजह थी कि उसने अपने यात्रा-मार्ग के बीच कुआं और वृक्ष लगवाए थे जहां कुछ देर आराम किया जा सके।   

आज मुख्य सड़क से थोड़ा हट कर बने एक बगीचे में यह स्थित है। जहां एक झील भी है जिसका पर्यावरण के मद्दे नज़र D.D.A. ने निर्माण करवा दिया था जिसमें इसी कुएं से पानी पहुँचाने की व्यवस्था थी। पर अब इसका हश्र भी बड़े शहरों के कुअों-बावड़ियों की तरह हो चुका है। देख-रेख के अभाव में बगीचे के साथ-साथ दूसरों को पानी देने वाला अब खुद उसके लिए तरस रहा है। झील को भी अपने को कुछ हद तक भरने का मौका बरसात में ही मिल पाता है। पहले तो इसके अस्तित्व का पता सड़क से चल भी जाता था पर इधर मेट्रो के गुजरने का मार्ग बनने के बाद यह और भी ओट में हो गया है। कुछ कोशिशें हुईं भी हैं इसे नया रूप देने को पर वे ना के बराबर ही रहीं। शेख्सपीयर की ना माने तो अब बस नाम ही है जो इसे जिन्दा रखे हुए है।             

शुक्रवार, 12 जून 2015

रहस्यमयता को श्रद्धांजलि

दो शख्शियतें, एक रहस्यमय माहौल में रहने वाली तथा दूसरी ऐसे ही माहौल को रचने वाली, चार-पांच दिनों के अंतराल में एक तीसरे रहस्यमय माहौल की ओर अग्रसर हो गयीं। श्रद्धांजलि। 
    
क्रिस्टोफर ली 
पचास-साठ का दशक। जेम्स बॉन्ड की फिल्मों के साथ ही एक और तरह की फिल्मों का भी इंतजार रहा करता था और वे थीं ड्रैकुला के चरित्र वाली डरावनी फिल्में। उनमें ड्रैकुला के पात्र को सजीव किया करते थे क्रिस्टोफर ली। वैसे तो   उन्होंने  फिल्मों  और   टी.वी.पर करीब 250 चरित्र अभिनीत किए जिनमें ममी और ड्रैकुला जैसी रहस्यमयी फिल्मों के साथ-साथ द मैन विद द गोल्डन गन,स्टार वॉर,लार्ड ऑफ द रिंग्स,जैसी अनेकों सफल हैं। पर उन्हें ख्याति मिली ड्रैकुला के चरित्र के कारण। इतनी गहराई से उन्होंने इसे निभाया था कि वे एक दूसरे के पर्याय ही बन गए थे। छह फुट से ऊपर निकलते कद, भारी गंभीर आवाज और मंजे हुए अभिनय के कारण उनकी अपनी पहचान बन चुकी थी। उन्हें "नाइट" की उपाधि से भी नवाजा जा चुका था। पिछले रविवार,सात जून को 93 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया।      

नेक चंद सैनी 
वही पचास-साठ का दशक, किसे पता था कि पंजाब के गुरदासपुर में जन्मे नेक चंद सैनी नामक युवक में, जो चंडीगढ़ में रोड इंस्पेकटर के साथ ही पब्लिक वर्क्स विभाग में काम करता था, टूटे-फूटे, बेकार, लोगों द्वारा फेंक दिए गए कबाड़ में भी सौंदर्य खोज उसे एक अनोखा रूप देने की  निकालने की क्षमता है। अपने खाली समय में वे कबाड़ को इकट्ठा कर उसे नया रूप देते रहते थे तथा उसे सुखना झील के पास की वीरान जगह पर अपने तरीके से सजाते रहते थे। पर इस क्षमता को आंकने में सरकार को करीब बीस साल लग गए। जब नेक चंद ने 13 एकड़ पर एक सपनों की नगरी बसा डाली थी।  भले ही सरकार को इतना समय लगा हो पर लोगों ने नेक चंद की मेहनत पर सफलता की मोहर बहुत पहले लगा दी थी।  चंडीगढ़ में उनका सपना "रॉक गार्डन" के रूप में साकार हो चुका था। समय के साथ नेक चंद की ख्याति सात समुन्द्र भी लांघ गयी जब उन्हें अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में वैसा ही म्यूजियम बनाने का प्रस्ताव दिया। 

1984 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाजा। पिछले गुरुवार 11 जून को उन्हें शायद ऐसा ही कुछ रचने के लिए स्वर्ग बुला लिया गया। 

इस तरह दो शख्शियतें, एक रहस्यमय माहौल में रहने वाली तथा दूसरी ऐसे ही माहौल को रचने वाली, चार-पांच दिनों के अंतराल में एक तीसरे रहस्यमय माहौल की ओर अग्रसर हो गयीं। श्रद्धांजलि।      

गुरुवार, 11 जून 2015

देश के अहित में लिप्त लोगों की कार का दरवाजा खोलते समय उनके दिल पर क्या गुजरती होगी

ओसामा को तलाशने और मार गिराने में अमेरिका के सील कमांडो ने बिना किसी शारिरिक क्षति के अपने काम को निर्धारित समय में पूरा कर सारे संसार में अपनी धाक जमा दी। यह सब उस कठोर ट्रेनिंग के कारण संभव हो पाया था जिसे करने के दौरान करीब 80 प्रतिशत कैडेट बीच में ही मैदान छोड़ देते हैं। पर जो इसे पूरा कर लेते हैं वे इस्पात साबित होते हैं।

जिज्ञासा होना जरूरी है कि इनके मुकाबले हमारे कमांडो कहां ठहरते हैं। तो यह खुशी का विषय है कि हमारे ‘मरीन कमांडो’ जिन्हें मारकोस के नाम से जाना जाता है, किसी भी दृष्टि से सील से कम नहीं ठहरते हैं। उनकी ट्रेनिंग भी सील जितनी ही कठोर होती है, कई मायनों में तो उनसे भी ज्यादा कठिन होती है। तभी तो अपनी ट्रेनिंग के दौरान सील भारत आ अपने को और बेहतर बनाने की कोशिश करते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हमारे कमांडो अमेरिका और ब्रिटेन जा कर करते हैं।

मारकोस की ट्रेनिंग अलसुबह शुरु हो जाती है जिसमें कसरत के साथ-साथ 18 किलो का वजन उठा कर 30 किमी की दौड़, मार्शल आर्ट्स, हर तरह के हथियारों का संचालन, पैराशूट और फ्री फाल जंप, उड़ते हेलीकाप्टर से रस्सी के सहारे उतरना, टार्च की रौशनी या अंधेरे में भी अचूक निशाना लगाना, साढे छह मिनट में 400 मीटर की दूरी पार करते हुए रास्ते में अचानक उभरते ‘टारगेट’ को निशाना बनाने जैसे दुष्कर कार्यों को पूरा करना पड़ता है। मारकोस का नारा ही है कि “जीतने के लिए ही हम लड़ते हैं।”

पर अपने देश में ढेरों विड़म्बनाओं की तरह ही यहां भी कुछ ऐसा ही है। जहां अमेरिका में सील का वेतन दो लाख रुपये माहवार है वहीं हमारे मारकोस को मिलते हैं अठ्ठाइस हजार रुपये। पैसे की बात ना भी करें पर देश के हित का सोच अपना खून-पसीना एक कर, इतने कठोर प्रशिक्षण और हाड़-तोड़ मेहनत के बल पर जो लियाकत और उपलब्धि हासिल की, समय आने पर बहुतेरे मारकोस उसका उपयोग देश की सेवा या सुरक्षा में कर ही नहीं पाते। पता नहीं उनके दिलों पर क्या बीतती होगी जब वे अपना समय देश का अहित करने वाले नेताओं की कार का दरवाजा खोलने और उनका सामान उठा उनके पीछे चलने में जाया होता देखते होंगे।

बुधवार, 10 जून 2015

उधर ठाकुर जी मेरा इंतजार कर रहे हैं !

मैं सोच में पड़ गया, एक तरफ मेरे ऊसूल थे दूसरी तरफ मित्र ।  तभी समझ में आया कि क्यों तमाम विरोधों के बावजूद इन  बाबाओं की दुकानें बंद नहीं होतीं।   जब चारों ओर से  इंसान थक-हार जाता है  तो इन जैसे लोग ही उसके लिए रौशनी की एक लकीर बन सामने आ खड़े होते हैं और पीड़ित इस मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ता रहता है, दौड़ता रहता है, किसी चमत्कार की आशा में ..........................        


सुबह-सबेरे ठाकुर जी का फोन आया, शर्मा जी, यदि समय हो तो मेरे साथ एक जगह चलना है। मैंने पूछा कहां जाना है ?  उन्होंने कहा "फलाने बाबा जी" से मिलना है। समय ले लिया है। मैंने कहा ठाकुर जी, आप जानते हैं कि मैं इन सब बातों में विश्वास नहीं करता, और फिर आप ! कैसे ? क्यों? 
वे बोले, आप तो जानते ही हैं कि पिछले तीन-चार साल से हर काम में अड़चन आ रही है। कोई काम सिरे नहीं चढ़ता। सब कुछ होते-हवाते भी जैसे कुछ नहीं होता। तो अब सोचा कि आपकी भाभी की बात भी मान कर देख लेते हैं,  एक बार आजमाने में क्या बुराई है ?  शायद कुछ ठीक हो ही जाए।  

मैं सोच में पड़ गया, एक तरफ मेरे ऊसूल थे दूसरी तरफ मित्र। तभी समझ में आया कि क्यों तमाम विरोधों के बावजूद इन  बाबाओं की दुकानें बंद नहीं होतीं। जब चारों ओर से इंसान थक-हार जाता है तो इन जैसे लोग ही उसके लिए रौशनी की एक लकीर बन सामने आ खड़े होते हैं और पीड़ित इस मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ता रहता है, दौड़ता रहता है, किसी चमत्कार की आशा में !        
    
एक समय था जब सन्यास का मतलब एंकात में जा साधना करना, प्रभू के ध्यान मे मग्न रहना, ज्ञान की खोज मे अपने को, परिवार को, समाज को भुला देना होता था। मन मे राग, द्वेष, भोग, विलास, माया, मोह किसी भी चीज के लिए स्थान नहीं रह जाता था। भगवा रंग सुचिता का प्रतीक था। उसे धारण करने वाला आदरणीय, पूजनीय माना जाता था। पर अब समय ने सब कुछ गड्ड-मड्ड कर रख दिया है, साधू-संतों के रूप में बहुरुपिए समाज को भरमाने लगे हैं। भगवा चोला पहन भोले-भाले इंसानों के तथाकथित हितचिंतक बन उनकी मजबुरियों का फायदा उठा उनकी भावनाओं से खिलवाड करने लगे हैं। कुछ तो अदूरदर्शियों की बुद्धि का हरण कर उनके भगवान ही बन बैठे हैं। उन्होंने अपनी पकड़ ऐसी बना ली है कि फिर वे चाहे कैसे भी नैतिक-अनैतिक कर्म करते रहें उनके अनुयायी सारे कर्मों-कुकर्मों को लीला ही समझते रहते हैं। देखते-देखते सड़क पर मजमा लगाने वाले, मठाधीश बन करोड़ों-अरबों के मालिक बन बैठे हैं। पर इतने से ही संतोष ना कर कुछ एक ने और आगे बढ, "अल्लाह मेहरबान......."  जैसे नेताओं को भरमा-फुसला कर राजनीति में पदार्पण कर लिया, क्योंकि सत्ता सुख जैसा सुख तो स्वर्ग में भी दुर्लभ है। ऐसे लोगों का धर्म, संस्कृति या मानवोत्थान से कुछ लेना-देना नहीं होता। ये लोग अपने कर्मों, अपने दायित्वों का बोझ ना उठा पाने वाले ऐसे भगोड़े होते हैं जिनकी हवस, कामनाएं, इच्छाएं नाग की तरह कुंडली मारे इनके मन के कोने में मौके की तलाश मे पडी कभी भी, कैसा भी अवसर मिलते ही फुंफकारने को तैयार रहती हैं।

ऐसे इंसान असामाजिक तत्वों का पक्ष ले समाज का अहित करने में नहीं हिचकिचाते, अपना भला आंक कर मौका-परस्ती का दामन थाम पाला बदलने मे देर नहीं लगाते, दाम मिलता दिखे तो खुद को किसी के हाथों बेचने में नहीं शर्माते। खबरों में बने रहने के लिए, टुच्ची लोकप्रियता को हासिल करने के लिए ये "किसी भी तरह के पंक में" गिरने को भी तैयार रहते हैं। इन पर जरा सा बदल कर एक विज्ञापन की पंच-लाइन बिल्कुल सटीक बैठती है "यदि नाम और दाम मिले तो दाग अच्छे हैं।"

तो यदि अचानक वर्षों से मजबूरीवश दमित इच्छाओं को पूर्ण करने का अवसर मिले, सप्त तारिका भोग-विलास की सामग्री सामने हो, बदनाम ही सही प्रचार और दाम मिलता हो तो कैसा धर्म, कैसी संस्कृति, कैसा आत्म ज्ञान, कैसी शर्म, कैसा संत .  बडे दरबार में प्रवेश ही सत्य है। पर अब मैं क्या करूँ समझ में नहीं आ रहा, असमंजस में हूँ ....................उधर ठाकुर जी मेरा इंतजार कर रहे हैं !!! 

मंगलवार, 9 जून 2015

सिर्फ विरोध के लिए अच्छी बात को नकारना ......?

छोटे भाई को सुबह-सबेरे सघन नीम के पेड़ों के बीच से गुजरते हुए वहां के शांत और स्वच्छ वातावरण की वायु को फेफड़ों में भरते हुए घर के सामने की पहाड़ी पर सूर्योदय के पहले चढ़ कर वहां प्रकृति के सौंदर्य को आत्मसात करते हुए कुछ समय व्यतीत करना था। पर उसे यह बात नागवार गुजरी। क्योंकि उसे मालुम था कि इस दिनचर्या को उसके बड़े भाई ने वर्षों से अपना रखा है।  उसे लगा ऐसा करने पर तो बड़े भाई को और भी यश मिल जाएगा और लोग उसकी हंसी उड़ाएंगे !       

कुछ सालों पहले जगत के सुंदरतम हिस्से में भारत लाल नाम के एक सज्जन पुरुष सपरिवार रहा करते थे। भरा-पुरा परिवार था। धन-धान्य, ऐशो-आराम, रूपये-पैसे की कोई कमी नहीं थी। ईश्वर की उनपर अटूट कृपा थी।  अपने इलाके के सबसे समृद्ध परिवारों में से उनका परिवार था। उनके व्यवसाय की साख दूर-दूर तक फैली हुई थी। बस एक ही कमजोरी थी उनमें कि वे किसी पर भी तुरंत विश्वास कर लेते थे। इसी  कारण बार-बार ठगे, लुटे जाते रहे थे। पर आदत नहीं बदलनी थी सो नहीं बदली। उसी का परिणाम था कि उनके भोलेपन का फायदा उठा बाहर से आए एक परिवार ने तो उनकी सारी संपत्ति पर ऐसा हक़ जताया कि वह ही मालिक कहलाने लगा। पर आपसी कलह में उनका तो सत्यानाश हो गया पर भारत जी को भी कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि एक और चतुर और कपटी इंसान ने उस कलह का फायदा उठा सारी जायदाद पर अपना मालिकाना हक़ जमा लिया था । 

भारत जी के दो बेटे थे, जो जवान हो चुके थे और अपने खिलाफ हुए षड्यंत्र को देखते-समझते अंदर ही अंदर आक्रोशित रहा करते थे। आखिर उनका विद्रोह रंग लाया और उन्होंने घुसपैठिए को अपने घर से मार भगाया। पर दुश्मन जाते-जाते ऐसी चाल चल गया कि वर्षों से एकजुट परिवार दो हिस्सों में बंट गया। दिलों में ऐसी दरार पड गयी कि एक दूसरे को देखना भी गवारा नहीं रहा। इसी गम में भारत जी चल बसे।  उनके जाने के बाद सदा से ईर्ष्या में डूबे एक पडोसी ने छोटे भाई पर डोरे डाल उसे अपने परिवार से ऐसा विमुख कर दिया कि उसे बड़े भाई की अच्छी बातें भी अपने विरुद्ध लगने लगीं। संपत्ति के एक साथ जुड़े होने की वजह से कहीं और न जा सकने की मजबूरी थी । सो वहीँ रह कर अपनी पहचान बनाने की हवस में वह हर उस बात का उलट करने लगा जिसे बडा भाई अपनाता या करता था। दोनों जानते थे कि उनकी आपसी रंजिश का फायदा दूसरे लोग उठा रहे हैं, पर कुछ गलतफहमियां, कुछ अहम, कुछ स्वार्थ, कुछ अपनी मतलब-परस्ती सदा आड़े आ जाते थे उनके आपसी मेल-जोल को स्थाई जामा पहनाने के।

समय ऐसे ही गुजरता गया। बड़े के लाख समझाने और कोशिशों के बावजूद छोटे ने कभी भी आपसी रंजिशों को ख़त्म करने की सलाह नहीं मानी और इसी कारण उत्पन्न तनाव के चलते अस्वस्थ रहने लगा। पहले तो घरेलु दवा-दारु अपनाए गए पर कुछ लाभ न होता देख विशेषज्ञों की राय ली गयी। उन्होंने परिक्षण पश्चात उसे अपनी सलाह पर सख्ती से अमल करने की सलाह दी। उपचार के चलते छोटे को सुबह-सबेरे सघन नीम के पेड़ों के बीच से गुजरते हुए वहां के शांत और स्वच्छ वातावरण की वायु को फेफड़ों में भरते हुए घर के सामने की पहाड़ी पर सूर्योदय के पहले चढ़ कर वहां प्रकृति के सौंदर्य को आत्मसात करते हुए कुछ समय व्यतीत करना था। जिससे तनाव को कम करने में सहायता मिलती। पर उसे यह बात नागवार गुजरी। क्योंकि उसे मालुम था कि इस दिनचर्या को उसके बड़े भाई ने वर्षों से अपना रखा है।  उसे लगा ऐसा करने पर तो बड़े भाई को और भी यश मिल जाएगा। लोग उसकी हंसी उड़ाएंगे। बात उसके भले की ही थी पर उसका अहम उसे बड़े भाई का अनुसरण करने से रोक रहा था। ऐसा करना उसे अपनी हेठी करवाना लग रहा था।

बड़े भाई को पता चला तो उसने फिर एक बार समझाया कि सेहत सब चीजों से सर्वोपरि है। तन-मन ठीक रहेगा तभी बाकी चीजें भी चल पाएंगी पर छोटे के कानों पर कोई जूं नहीं रेंगी, और तो और सुनने में आया है कि उसने उस तरफ खुलने वाले खिड़की-दरवाजे भी बंद करवा दिए हैं और घर में सख्त हिदायत दे दी है कि उस तरफ कोई झांके भी नहीं।
अब कोई ऐसे आदमी के लिए क्या कर सकता है ! सिर्फ दुआ के अलावा !!         

सोमवार, 8 जून 2015

दशकों के बाद भी वह सरदार दंपति भूलते नहीं

वर्षों पहले घटी वह घटना भूलती नहीं  है। अजीब माहौल था। रात का समय, अनजानी जगह, सुनसान अंधेरे से घिरी पहाड़ी पर एक शांत सा खाली बंगला।  बंगले के मालिक, सरदार दंपति दस-बीस मिनट की पहचान पर घर का एक हिस्सा मुझे सौंप खुद कहीं चले जाते हैं । मुझे यह भी नहीं पता कि वे इस घर के मालिक हैं भी कि नहीं !! शक का कीड़ा बुरी तरह कुलबुलाता है.…

काफी समय गुजर चुका है इस बात को, पर भूलते नहीं हैं वे दिन। अति व्यस्तता के कारण शादी के बाद एक लंबे अरसे तक छुट्टियों पर जाने का का मौका नहीं मिल पाया था। नौकरी के चलते उस समय कलकत्ते में रहना हो रहा था। आखिर  दुर्गा-पूजा के वक्त वह समय भी मिल ही गया।  वहां से दिल्ली आए और एक-दो दिन बाद चंडीगढ़ में कदम जी के मामाजी के पास एक दिन रहने के बाद कुल्लू-मनाली का कार्यक्रम तय पाया गया। कुल्लू का दशहरा सारे संसार में विख्यात है, उसे देखने का भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे हम सब। कुल्लू में भी परिचित का निवास होने के कारण उन दिनों वहां की भीड़-भाड़ की भी चिंता नहीं थी।
     
उन दिनों बसों में उतनी "वैरायटी" नहीं होती थी। ज्यादातर दो तरह की बसें चला करती थीं लम्बे रूट पर।  एक साधारण सब जगह रुकती-थमती और दूसरी कुछ ज्यादा आरामदेह और कम जगह रुकने वाली। उन्हें डीलक्स बस कहा जाता था। ऐसी ही एक बस में सीट बुक करवा ली गयी थी। दोपहर को दिल्ली से चल शाम को चंडीगढ़ पहुँच गए। इनके मामाजी करीब-करीब मेरे हम-उम्र हैं सो काफी पटती रही है। अच्छा समय कट रहा था। पर आदमी सोचता कुछ है होता कुछ और ही है।  वहाँ से दूसरे दिन आगे की यात्रा शुरू होने के पहले खबर आई कि कुल्लू वाले हमारे पारिवारिक दोस्त को किसी बहुत जरूरी काम से दिल्ली जाना पड गया था। मामला थोड़ा पेचीदा हो गया था क्योंकि नयी जगह और मेले-त्यौहार का समय, रहने की चिंता होनी ही थी। पर कार्यक्रम को स्थगित करने के पक्ष में नाहीं मैं था नाहीं श्रीमती जी। सो यह तय हुआ कि समयानुसार कुछ कर लिया जाएगा, कुल्लू में भीड़ होगी तो आगे मनाली में कुछ इंतजाम कर लेंगे।

सुबह-सुबह यात्रा शुरू हुई, सफर के दौरान पास बैठे एक बुजुर्ग सिख पति-पत्नी ने मेल-मिलाप के दौरान हमारी हालत जान हमें अपने घर पर ठहरने का प्रस्ताव दे दिया। बात आई-गयी हो गयी।  मैं कलकत्ते जैसे  शहर का रहने वाला, अनजान जगह में अनजान इंसान द्वारा  दिए गए प्रस्ताव को उसमें उनका कोई मतलब समझ स्वीकार नहीं कर पा मनाली जाने के अपने इरादे पर डटा रहा। यह बात मैंने कदम जी को भी बतला दी थी कि हम इसी बस से सीधे मनाली ही जाएंगे। इसके बाद सरदार दंपति से और कोई बात भी नहीं हुई। रात करीब आठ बजे के आस-पास बस कुल्लू में ढालपुर के अस्थाई बस अड्डे पर पहुंची।  मैं निश्चित बैठा था कि मुझे तो आगे जाना है पर तभी सरदार जी ने आवाज लगाईं, आओ भाई उतरो, कुल्लू आ गया। इतना ही नहीं उन्होंने मेरा सामान भी उतरवा लिया। असमंजस के बावजूद अब उतरना ही था सो उतर कर उनके साथ हो लिए। मैदान, सड़क पार कर यह काफिला एक ऊंचाई की ओर जाती पगडंडी पर चलते-चलते एक बंगले के सामने रुका। सरदार जी ने एक हॉल नुमा कमरा उसकी चाबी समेत हमें सौंप दिया और सुबह मिलने का कह घर के दूसरे हिस्से की ओर चले गए।  कुछ देर बाद उधर के दरवाजे इत्यादि के बंद होने की आवाज के साथ-साथ ऐसा लगा कि वे लोग फिर नीचे की ओर जा रहे हैं।

अजीब माहौल था। रात का समय, अनजानी जगह, सुनसान अंधेरे से घिरी पहाड़ी पर एक शांत सा खाली बंगला, बंगले का मालिक दस-बीस मिनट की पहचान पर घर का एक हिस्सा मुझे सौंप खुद कहीं चला जाता है। मुझे यह भी नहीं पता कि वह इस घर का मालिक है भी कि नहीं !! शक का कीड़ा बुरी तरह कुलबुला रहा था। समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। फिर जो होगा देखा जाएगा की तर्ज पर कुछ तरो-ताजा हो हम दोनों भी नीचे आबादी की तरफ निकल लिए। समय था साढ़े नौ-पौने दस का। सोचा था दो-एक घंटें में तो ये लोग भी लौट आएंगे।  मेले के कारण दुकानें वगैरह खुली हुई थीं। वहीं से सबसे पहला जानकारी हासिल करने का किया जिससे पता चला कि सरदार जी अवकाश प्राप्त "मैजिस्ट्रेट' हैं। रहते चंडीगढ़ में हैं पर यहां भी आते-जाते रहते हैं ख़ास कर इन दिनों। ऊपर का बंगला भी उन्हीं का है। यह सब जान कर कुछ तसल्ली तो मिली पर, "व्योमकेश बक्शी" के बंगाल का निवासी, मैं अपने आप को यह नहीं समझा पा रहा था कि आज के जमाने में क्यों कोई अपने घर को बिना जान-पहचान के किसी अजनबी के लिए खोल देगा। खैर रात ग्यारह बजे हम दोनों मियां-बीवी यह मनाते ऊपर आए कि शायद वे दोनों भी अब तक आ चुके होंगे। पर कहां !! वहां तो वैसा ही सन्नाटा पसरा पड़ा था। फिर तो वही किया जो अपने हाथ में था, दरवाजा-खिड़की अंदर से बंद कर बिस्तर पर पसर गए। थके थे, परेशानी व तनाव के बावजूद निद्रा ने अपने आगोश में समेट लिया। ऐसा लगा कि आधी रात के बाद दूसरे हिस्से में कोई हलचल हुई है पर जिज्ञासा पर नींद ज्यादा भारी रही।

अभी सबेरा हुआ- हुआ ही था कि भीतर के हिस्से को जोड़ने वाले कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई। कदम जी ने दरवाजा खोला तो पाया कि सरदारनी आंटी हैं। दुआ-सलाम, खैरियत पूछने के बाद बोलीं, लै पुत्तर किचन दी चाबी, जो इच्छा करे बना लेंइं। सानू बी दे देंयीं। एक-दूसरे का मुंह देखते हुए हम सोच रहे थे कि क्या अभी भी दुनिया में ऐसे लोग हैं ?
खैर! रसोई खुली !! रसोई क्या थी, पूरा भरा-पुरा स्टोर था। हर चीज का अंबार, आलू-प्याज के साथ-साथ सेव, आड़ू, अखरोट "तुन्ने" पड़े थे। नाश्ता बनाया गया, ग्रहण किया गया। अभी भी अपने दिल को तसल्ली न दे पाने की मनःस्थिति के वश बातों ही बातों में मैंने पूछ ही लिया कि यहां रहने की अवधि का जो भी बन  रहा हो वे मुझे बता दें। सरदार जी ने पहले तो पूछा कि आपने रहना कितने दिन है ? तो मैंने बताया कि कल निकलने का विचार है। यह सुन वे बोले, पुत्तर यह इसलिए मैंने पूछा क्योंकि परसों मैं किसी और लोगों से भी यहां ठहरने को कह चुका हूँ।  प्रभु का दिया सब कुछ है, उसकी मेहर है, मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए।  बस आप जैसे लोग खुश रहें। सुनते आ रहे थे कि पहाड़ों के निवासी सीधे, सरल, निष्कपट होते हैं, आज प्रमाण भी पा लिया था।

कलकत्ता लौटने पर कुछ दिनों तक खतो-किताबत हुई पर फिर  समय की धुंध में सब खो गया। वर्षों बाद, करीब तीस साल के अंतराल के बाद फिर कई बार आना-जाना हुआ पर तब तक कुल्लू इतना बदल चुका था, व्यास में इतना पानी बह चुका था, कि कुछ भी खोजना पता लगाना संभव नहीं हो पाया। पर उनकी छवि, धुंधली सी ही सही, अभी भी यादों में विद्यमान है।                                                  

शनिवार, 6 जून 2015

संबंधों में कोई लुकाव-छिपाव नहीं होना चाहिए

यह सब देख-पढ़ कर पुरानी फिल्मों की याद आती है, जिनकी कहानी के आखीरी भाग में धूसर चरित्र को निभाने वाले प्राण साहब या प्रेम चोपड़ा जी जैसे खल-नायक नायिका को उसके न चाहने पर भी जबरदस्ती खींचते-खांचते-घसीटते हुए किसी जंगल-पहाड़ी या गुफा में ले जाते थे तथा वहां उपस्थित पंडित को तुरंत शादी करवाने का हुक्म देते थे।  
                       
आज यू. पी. के एक गांव में घटी घटना की खबर पढ़ी जहां निकाह के लिए गए बन्ने के सर पर से, एक बुजुर्ग महिला द्वारा आशीष देते हुए हाथ फेरने से उसका विग उतर गया। दूल्हे के गंजा होने की बात छिपाई गयी थी, लिहाजा लड़की ने शादी से इंकार कर दिया। आए दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं। कहीं लड़का अनपढ़ निकलता है, कहीं उसे शराब की लत होती है तो कहीं कोई रोग शरीर में घर किए बैठा होता है। ऐन मौके पर समय की नजाकत को न देखते हुए किसी मंहगी वस्तु की कामना तो आम बात हो गयी है जिससे दोनों पक्षों में कटुता फैल जाती है और एकाधिक बार रिश्ते टूटने की नौबत आ खड़ी होती है।  

पुरानी फिल्मों की याद आती है, जिनकी कहानी के आखीरी भाग में धूसर चरित्र को निभाने वाले प्राण साहब या प्रेम चोपड़ा जी जैसे खल-नायक नायिका को उसके न चाहने पर जबरदस्ती खींचते-खांचते-घसीटते हुए किसी पहाड़ी पर ले जाते थे तथा वहां उपस्थित पंडित को तुरंत शादी करवाने का हुक्म देते थे। फिर नायक के आने के बाद कुछ देर ढिशुंग-ढिशुंग और फिर बुराई का अंत। पर यहां कहानी के सुखांत होने की बात नहीं हो रही। मान लिया जाए कि वह शादी हो जाती तो ! वैसे दो लोगों का खुश रहना तो दूर साथ रह पाना भी दूभर हो जाता।  जबरदस्ती, धोखाधड़ी की बुनियाद पर बने रिश्ते कहां तक निभ पाते ?  खैर वह तो फिल्मों की बात थी, पर आज वैसे ही लोग, जो झूठ की बुनियाद पर शादी का महल बनाने पहुँच जाते है, क्या उनके दिमाग में एक बार भी यह बात नहीं आती कि आज नहीं तो कल, एक न एक दिन तो उनके झूठ का भांडा फूटेगा ही तब क्या वे अपने संबंधों को बचा पाएंगे ? अब वो बात नहीं रही कि एक बार शादी हो जाए तो फिर कुछ नहीं हो सकता। चलो मान भी लिया जाए कि संस्कारिक लड़का या लड़की लोक-लाज के तहत बात को तमाशा न बनाने की ग़र्ज से  बाहर न भी जाने दें तो भी उनकी अपनी जिंदगी क्या नरक नहीं बन जाएगी ?  जो नफरत, तनाव एक-दूसरे के प्रति हिकारत पैदा होगी क्या उससे जीवन-यापन करना संभव हो पाएगा। फिर खुदा-न-खास्ता यदि बच्चे हो गए हों तो उनके भविष्य पर क्या असर पडेगा ?  

दुनिया में शायद ही ऐसा कोई इंसान हो जिसमें कोई कमी न हो। वह खुद की बनाई भी हो सकती है और प्रकृति-प्रदत्त भी। खुद की बनाई कमी या लत को दूर किया जा सकता है पर प्राकृतिक देन को स्वीकारने में कोई दोष नहीं है। उसे उजागर होने दें और जो उसके साथ आपको सहर्ष स्वीकारे उसी को अपना जीवन साथी बनाएं। पर होता यह है कि अपनी औलाद की कमियों, खामियों को जानते-बूझते भी माँ-बाप उन्हें शादी के मंडप पर ले जा खड़ा करते हैं। इसके पीछे कोई भी कारण हो सकता है, उस कमी के कारण शादी न हो सकने का भय, लडके की बढाती उम्र, कुछ भी।  पर ऐसा कर वे लोग अपने बच्चों का भविष्य बिगाड़ने में पूरा का पूरा योगदान भी करते हैं। जो आगे चल कर अधिकांश शादियों के टूटने और तलाक का कारण बनता है। 

हमारे यहां शादी-ब्याह दो लोगों का नहीं दो परिवारों का मेल माना  जाता है, सो दोनों तरफ से यह कोशिश होनी चाहिए कि बनने वाले संबंध बिना किसी लुकाव-छिपाव के पूरी तरह पारदर्शी यानी आईने की तरह साफ हों।   

शुक्रवार, 5 जून 2015

सेहत पर भारी पड़ते दो मिनट

काम के बोझ के बढ़ने के बावजूद उसे बांटने का समय तो वही रहना था, सो शुरू हुई कुछ कामों में लगने वाले समय की कटौती।  मैगी ने जो भी सफलता पाई वह सिर्फ इसलिए थी कि इससे लोगों को अपने समय को बचाने का मौका मिल जाता था।  ज्ञातव्य है कि मैगी और निरमा इन दोनों की सफलता सिर्फ और सिर्फ विज्ञापनों की धुंआधार गोलाबारी के कारण ही संभव हो पाई थी नाकि उनकी गुणवत्ता के।  

कुछ सालों पहले तक अपने यहां जिंदगी में ऐसी आपा-धापी या दौड़-भाग नहीं होती थी। पापा लोग घर  के बाहर की जिम्मेदारी संभालते थे और माँ घर और बच्चों की। खान-पान की सफाई और शुद्धता का सारा जिम्मा घर की
महिलाएं सफलता पूर्वक वहन करती थीं। जिसका असर अभी भी उस समय के बाल से युवा और अधेड़ हुए स्वस्थ रहते लोगों की सेहत पर देखा जा सकता है। समय बदला, बेहतर जिंदगी की तलाश में लोग महानगरों, मेट्रो शहरों की ओर मुखातिब होते चले गए। स्थापित होने के बाद, मजबूरी के तहत ही सही, संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ। फिर बढती मंहगाई, नई-नई सुख-सुविधाओं को बटोरने और महंगे माहौल के भंवर में फंसे पति-पत्नी दोनों को घर का बजट संभालने के लिए निकलना पड़ा  रोजी-रोटी की तलाश में।  अब काम का बोझ तो कई गुना बढ़ा पर उसे बांटने के लिए समय उतना ही रहा। सो शुरू हुई कुछ कामों में लगने वाले समय की कटौती। गाज गिरी भोजन बनाने-पकाने वाले, अपनी सेहत पर व्यतीत होने वाले और कुछ अपने आराध्य की ओर ध्यान देने वाले समय पर।  इसका पूरा फायदा बाजार ने उठाया संचार माध्यम का सहारा लेकर। ज्ञातव्य है कि मैगी और निरमा इन दोनों की सफलता सिर्फ और सिर्फ विज्ञापनों की धुंआधार गोलाबारी के कारण ही संभव हो पाई थी। बिना उचित गुणवत्ता के बावजूद। 

यही वह समय था जब समय की तंगी से त्रस्त लोगों ने बिना गुणवत्ता की जांच किए, बिना हानि-लाभ को परखे, मैगी जैसे तुरंत तैयार होने वाले खाद्य पदार्थों के जाल में अपने-आप फंसवा लिया। समय कहां था किसी चीज को परखने का, यहां तो सवाल था सिर्फ पेट को भरा-भरा महसूस करवाने का। इसी का फायदा उठा  'मैगी' नामक कंपनी ने, जो जूलियस मैगी को 1872 में स्विट्जरलैंड में अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी, भारत में भी अपने पैर पसार लिए। जूलियस ने अपनी कंपनी द्वारा पहली बार प्रोटीन से भरपूर खाद्य-पदार्थों 1886 में परिचित करवाया था।  जिसका 1947 में "नेस्ले" में विलय हो गया। 1982 में पहली बार जब भारत में मैगी ने अपने बहुचर्चित स्लोगन "बस दो मिनट" के साथ पदार्पण किया तो उसकी पहचान घर-घर में सबसे सस्ते और तुरंत खाए जाने वाले पदार्थ के रूप में ऐसी बनी कि लोग किसी भी तरह के "नूडल" को मैगी के नाम से ही पुकारने लग गए। इसी लोकप्रियता के चलते फ़िल्मी सितारों ने भी बिना किसी जांच-परख के इसकी बिक्री में अपना योगदान दे डाला। अपने-आप को बाज़ार की गला-काट प्रतिस्पर्धा में बनाए रखने के लिए वह समय-समय पर तरह-तरह के स्वाद लोगों को पेश करती रही। इसी चक्कर में लोगों की सेहत की आधारभूत बात कहीं गुम होती चली गयी।  जिसके लिए पहली आवाज 2008 में बांग्ला देश में तब उठी जब कंपनी ने टी. वी. पर एक भ्रामक विज्ञापन प्रसारित कर दिया था। जिससे बड़ी मुश्किल से कंपनी को निजात मिल पाई थी । अब 2015 में उत्तर प्रदेश के 'सैम्पल' में लेड धातु और नमक की कई गुना अधिकता ने इसकी लापरवाही फिर उजागर कर दी है। जिसका खामियाजा जगह-जगह से इस पर पाबंदी के रूप में सामने आ रहा है। पर इस जैसी और कंपनियां अभी भी बेधड़क अपने विज्ञापन जारी रखे हुए हैं। उनकी जांच होना भी जरूरी है।                                             

मैगी ने जो भी सफलता पाई वह सिर्फ इसलिए थी कि इससे लोगों को अपने समय को बचाने का थोड़ा समय मिल जाता था। सो इससे होने वाली हानि को जानते-बूझते हुए भी लोग उस पर ध्यान नहीं देते थे। इसीलिए इसकी सफलता से प्रभावित इस जैसे दसियों "प्रोडक्ट" आज बाजार में उपलब्ध हैं। उसके साथ ही कई ऐसे बड़े रेस्त्रां ने अपनी "चेन" की ऐसी श्रृंखला भारत में स्थापित कर डालीं जिनका लोगों के स्वास्थ्य से कोई सरोकार नहीं है बस अपने "इंस्टैंट" स्वरुप और तीखे चटक मसालेदार स्वाद के कारण वे लोकप्रिय बने हुए हैं। जो हानिप्रद होते हुए भी बच्चों पर अपनी पकड़ बना चुके हैं।

अब यह तो अभिभावकों का फर्ज है कि वे अपने बच्चों को सही और गलत का भेद समझा उनको अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ न करने दें। पर क्या यह संभव है जबकि खुद अपने आप को  "माडर्न" दिखाने और समझने वाले अभिभावक ही उस स्वाद के शिकंजे में जकड़े हुए हों !!!

गुरुवार, 4 जून 2015

इतना आसान भी नही है यह काम .....:-)

एक नायाब कला है चाय में बिस्कुट डुबा कर उसे बिना गिराये मुंह तक लाना। दिखने में आसान सा यह काम इतना आसान भी नहीं है। इसके पीछे पूरा गणित काम करता है। इसकी पेचीदगी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है, जो बिस्कुट के आकार-प्रकार,  चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। यह नैसर्गिक  कला हमें विरासत में मिलती चली आई है  :-)

बहुतेरी बार ऐसा लगता है कि हमारी कई ऎसी नैसर्गिक खूबियां हैं जो बेहतरीन कला होने के बावजूद किसी इनि-मिनी-गिनी रिकॉर्ड दर्ज नहीं हो पायी हैं। ऐसा नहीं होने का कारण यह भी है कि इस ओर हमने कभी कोई कोशिश ही नहीं की है।  ऐसी ही एक नायाब कला है चाय में बिस्कुट डुबा कर उसे बिना गिराये मुंह तक लाना।

दिखने में आसान सा यह काम इतना आसान भी नहीं है। इस सारे क्रिया-कलाप में तन्मयता, एकाग्रता, कारीगरी और विशेषज्ञता की जरुरत होती है, जिसे हम बिना किसी प्रयास के अंजाम दे देते हैं। इसके पीछे पूरा गणित काम करता है। ऐवंई हम गणित में जगतगुरु नहीं बन गए थे। पर चूँकि यह हमारे यहां बहुत आम बात है इसलिए इसकी पेचीदगी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। अपने-आप को माडर्न समझने वाले चाहे इसे हिकारत की नज़र से देखें पर उससे इसकी अहमियत कम नहीं हो जाती। इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है, जो बिस्कुट के आकार-प्रकार,  चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। यह नैसर्गिक  कला हमें विरासत में मिलती चली आई है। पहले बिस्कुटों की इतनी विभिन्न श्रेणियाँ नही होती थीं । परन्तु तरह-तरह के बिस्कुट, केक, रस या टोस्ट के बाजार में आ जाने के बावजूद हमें कोई दिक्कत पेश नहीं आई है। हमारी प्राकृतिक सूझ-बूझ ने सब के साथ अपनी "टाइमिंग" बैठा ली है।  जहां "ग्लूकोज़" या "बेकरी" के उत्पादों का भिगोने का समय अलग होता है वहीं "मैरी, थिन-अरारोट या क्रीमकरैकर" का कुछ अलग। यहां भी पूरा स्वाद का मामला है। यदि बिस्कुट पूरा ना भीगे तो उसमें वह लज्जत नहीं आ पाती जिसका रसास्वादन करने को रसना लालायित रहती है और कहीं ज्यादा भीग जाए तो फिर वह प्याले में डुबकी लगाने से बाज नहीं आता। यह सारा काम सेकेण्ड के छोटे से हिस्से में पूरा करना होता है। यदि बिस्कुट चाय के प्याले में गिर गया तो समझिए कि आपकी चाय की ऐसी की तैसी हो गयी। उसका पूरा स्वाद बदल जाता है बिस्कुट की तो छोड़ें वह तो किसी और ही गति को प्यारा हो चुका होता है। पर ऐसा होता नहीं है, .01 प्रतिशत की गफलत होती हो तो हो, वह भी बच्चों द्वारा, नहीं तो ऐसा बहुत कम ही होता है कि किसी ने इस प्रयोग के दौरान अपनी चाय खराब की हो।  अब चूंकि बाहर वाले तथाकथित विकसित देशवासी इस कला को अपना या समझ नहीं पाए हैं तो उन्होंने इसे कमतर आंकने या अकवाने का दुष्प्रचार चला रखा है। पर कुछ भी हो हमें अपनी यह विरासत जिंदा रखनी है, इस कला को पोषित करते रहना है, इसे कला जगत में इसका अपेक्षित सम्मान दिलवाना है    

कुछ इसी तरह की लियाकत अपने यहां गोल-गप्पे (पुचका, पानी-पूरी) खाने में भी काम आती है। इस नाजुक सी चीज, जिसमें खट्टे पानी के साथ साथ आलू और चने जैसी भारी चीजें भी डली होती हैं, उसे नरमाई के साथ हलके से पकड़, फूटने से बचाते हुए मुंह तक लाना कोई आसान काम नहीं होता। फिर तीन-चार जने भी खा रहे हों तो भी अपना अगला हिस्सा आने के पहले-पहले अपना दोना खाली करना पड़ता है। इस सारे क्रिया-कलाप में भी जिस तरह चाय-बिस्कुट जैसी तन्मयता, एकाग्रता, कारीगरी और विशेषज्ञता की जरुरत होती है उस  विषय पर फिर कभी।         

मंगलवार, 2 जून 2015

पीतल को कितना भी मांजें ..........!!!

फ़िल्मी क्षेत्र में  कुछ लोग अपने  "चिरागों-मोमबत्तियों " को भी दिन का सूर्य समझ, दर्शकों पर थोपने की कोशीश करते नहीं थकते। ऐसे लोग यदि अपने बच्चों, रिश्तेदारों को फिल्मी नदी की धारा में नहीं तैरा पाते तो उन्हें टी. वी. या इश्तेहारों के तरण-ताल में अपने सुरक्षा उपकरणों के साथ उतारने में अपने रसूख का प्रयोग करने से नहीं चूकते। पर दर्शकों की नापसंदगी के कारण  मजबूरन संबंधित कंपनी को आर्थिक नुक्सान सहते हुए उसे हटाना पड़ता है। गलती उस कंपनी की भी है जो चुके-लुटे-पिटे चेहरों की बदौलत अपना उत्पाद बेचने की हिमाकत करते हैं। 

एक पुरानी फ़िल्म का गाना है, "कोई लाख करे चतुराई, कर्म का लेख मिटे न रे भाई।" यह अटल सत्य है कि भाग्य का लिखा बदलना विधि के हाथों में भी नहीं है। पर कुछ इंसान "छप्पर फटने" से या "खुदा के मेहरबान" होने से अपने क्षेत्र में कुछ रसूख हासिल कर लेते हैं तो अपनी महत्वकांक्षाओं के तहत वे किसी भी तरह की, ख़ास कर अपने जिगर के टुकड़ों की, नाकामी बर्दास्त नहीं कर पाते भले ही वे किसी भी काम के लायक न हों। पर ऐसी हस्तियों को लगता है कि वे अपने पद-रसूख या छवि का प्रयोग कर किसी को भी कैसी भी सफलता दिलवा सकते हैं। वे भूल जाते हैं कि अपनी हैसियत के चलते वे अपने प्रिय पात्र को कहीं भी किसी भी क्षेत्र में प्रवेश तो दिला सकते हैं पर वहां टिके रहने और अपना स्थान बनाए रखने के लिए  उस पात्र में योग्यता होनी चाहिए। किसी गधे को मार-मार कर घोडा नहीं बनाया जा सकता। अपने को भाग्य-विधाता समझने वाले ऐसे लोग हर क्षेत्र में होते हैं, जिनके अनगिनत उदाहरण सबके सामने हैं, और आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे लोग कभी बीती बातों से सबक भी नहीं लेते। सभी जानते हैं कि अपने समय के मशहूर खिलाडी अपने बेटे को भी खेल जगत की नामचीन हस्ती बनाने के लिए उसे दसियों राज्यों से पच्चीसों मौके दिलवा-दिलवा कर भी स्थापित नहीं कर पाए। नेताओं की तो बात ही छोड़ दें, अपने फरजंदों को बिना उनकी लियाकत परखे उन्हें हर चमकदार-बहुचर्चित सर्वाधिक लुभावने क्षेत्र में प्रवेशित करने के लिए क्या-क्या तिकड़में नहीं आजमाते। पर रपटीली जमीं पर टिकने के लिए खुद में हुनर होना जरुरी होता है। ये बात सबसे ज्यादा नजरंदाज फिल्मी क्षेत्र में होती है। कारण भी है, यह ऐसी जगह है जहां सालों-साल चमकीले नकली सिक्के असली पर भारी पड़ते आए हैं। जहां हर बाप को अपना बेटा दिलीप कुमार या अमिताभ बच्चन नज़र आता है वहीं हर लड़की खुद को मधुबाला या वहीदा रहमान से कम नहीं आंकती। पर एक बात है, यहां तकदीर बहुत काम आती है। बहुत बार कुछेक लोग अपने सपाट चेहरे, भावहीन अभिनय के बावजूद  कुछ लटके-झटकों के साथ किसी कंधे-सीढ़ी का सहारा ले किसी तरह ठेल-ठाल कर धक्का-मुक्की कर अपनी जगह बना लेते हैं। विडंबना यह है कि इस खुदाई मेहरबानी को वे अपनी कला समझने की भूल जिंदगी भर करते रहते है। इसी मुगालते में वे अपने चिरागों-मोमबत्तियों को भी दिन का सूर्य समझ, येन-केन-प्रकारेण, लोगों पर थोपने की कोशीश करते नहीं थकते। उन्हें यह ध्यान नहीं रहता कि "पब्लिक सब जानती है।" उसकी संवेदनाओं या भावनाओं के साथ एक-दो बार खिलवाड़ किया जा सकता है, बार-बार नहीं।            


पर मोह-माया-ममता कहां छूट पाती है। ऐसे लोग यदि अपने बच्चों, रिश्तेदारों को फिल्मी नदी की धारा में नहीं तैरा पाते तो उन्हें टी. वी. या इश्तेहारों के तरण-ताल में अपने सुरक्षा उपकरणों के साथ उतारने में अपने रसूख का प्रयोग करने से नहीं चूकते। पर ऐसे ऊल-जलूल इश्तिहार भी कहां लोगों को प्रभावित कर पाते हैं और दर्शकों की नापसंदगी के कारण  मजबूरन संबंधित कंपनी को आर्थिक नुक्सान सहते हुए उसे हटाना पड़ता है। गलती उस कंपनी की भी है जो चुके-लुटे-पिटे चेहरों की बदौलत अपना उत्पाद बेचने की हिमाकत करते हैं। जबकि यह प्रमाणित हो चूका है कि अनजान चेहरों के साथ बनाए गए अच्छे मजमून और संदेश वाले इश्तिहार दर्शकों पर ज्यादा असर छोड़ते हैं। जबकि किसी सितारे के कारण लोगों का ध्यान उत्पाद पर कम 'सेलेब्रेटी' पर ज्यादा रहता है।  अब दर्शकों को पसंद आए न आए पर ऐसे चेहरे अपने सरपरस्तों के कारण कुछ दिनों तक ही सही दृश्व माध्यम की बदौलत अपनी दमित इच्छा पूर्ति कर लेते हैं और ऊपर से कमाई अलग।   

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