बुधवार, 17 अप्रैल 2024

सफलता जोश से मिलती है, रोष से नहीं

ट्रक ड्राइवर ब्लॉगर राजेश रवानी आज जहां अपने ब्लॉग से अच्छी-खासी आमदनी कर रहे हैं वहीं कांग्रेस का कुंठित मानस पुत्र जो इंजीनिरिंग करने के बाद ऑटो रिक्शा चला रहा है, समाज व सरकार को कोस रहा है ! यहां बात है, इस किरदार के सोच की ! वह अपने काम को, जो उसे रोजी-रोटी दे रहा है, घटिया समझता है और अपने ऑटो चालक होने की बात को समाज से छुपाने के लिए घर से टाई वगैरह पहन कर निकलता है ! कैसी सोच है यह ? कौन हैं ऐसे किरदार को गढ़ने वाले ? कैसी मानसिकता है उनकी ! जिस काम से घर की रोजी-रोटी चल रही हो, उसी को घटिया समझना ! अपनी नाकामियों का दोष दूसरों के सर मढ़ना ! उस युवक के चेहरे पर दूसरों के प्रति रोष, आवाज का तीखापन, विद्रूपता यह सब मिल कर उसके प्रति सहानुभूति नहीं नफरत ही पैदा करते हैं ..............!

सफलता पाने के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं होती ! ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं ! ताजातरीन है झारखंड राज्य के जामताड़ा जिले के निवासी श्री राजेश रवानी ! जो 25 वर्षों से भी अधिक समय से ट्रक चला कर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं ! एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि कैसे कठिन आर्थिक स्थिति के कारण बेहद विकट परिस्थितियों में उन्होंने अपना समय गुजारा ! अपने अब तक के पूरे जीवन में हमेशा किराए के घर में रहे ! पर समय के अनुसार, बढ़ती उम्र में भी वे अपने में बदलाव ले आए ! 

यात्रा के दौरान पाक क्रिया 

अपनी ट्रक ड्राइवर की नौकरी के दौरान, देश भर में घूमते हुए सोशल मीडिया पर विभिन्न तरह के वीडियो वगैरह देख उनको भी लगा कि मैं भी ऐसा कुछ नया कर सकता हूँ ! परिवार के बच्चों से आयडिया लिया और अपनी ट्रक यात्राओं के दौरान, अपना खुद का खाना बनाने के वीडियो ''ट्रक ड्राइवर ब्लॉगर'' के नाम से बना, यू ट्यूब पर ड़ाल दिए ! वीडियो इतना लोकप्रिय हुआ कि उनके फॉलोअर्स का आंकड़ा 15 लाख की संख्या को छूने जा रहा है ! राजेश जी ने अभी हाल ही में अपनी कमाई से एक नया घर खरीदा है. उन्होंने दुनिया को यह दिखाया है कि आपकी उम्र या आपका पेशा कितना भी मामूली क्यों न हो, खुद को स्थापित करने में कभी देर नहीं होती ! 

इसके ठीक विपरीत आजकल कांग्रेस पार्टी का एक विज्ञापन मीडिया पर एक ऐसे कुंठित युवक को दिखा रहा है जो इंजीनिरिंग करने के बाद ऑटो रिक्शा चला रहा है ! बात रिक्शा चलाने की नहीं है बात है इस किरदार के सोच की ! वह अपने काम को, जो उसे रोजी-रोटी दे रहा है, घटिया समझता है और अपने ऑटो चालक होने की बात को समाज से छुपाने के लिए घर से टाई वगैरह पहन कर निकलता है ! कैसी सोच है यह ? कौन हैं ऐसे किरदार को गढ़ने  गढ़ने वाले ? कैसी मानसिकता है उनकी ! जिस काम से घर की रोजी-रोटी चल रही हो, उसी को घटिया समझना ! अपनी नाकामियों का दोष दूसरों के सर मढ़ना ! उस युवक के चेहरे पर दूसरों के प्रति रोष, आवाज का तीखापन, विद्रूपता यह सब मिल कर उसके प्रति सहानुभूति नहीं नफरत ही पैदा करते हैं !

जहां परिस्थितियों ने राजेश रवानी को आजीविका के लिए ट्रक चलाने के लिए मजबूर किया, वहीं खाना पकाने के प्रति उनके जुनून और उस प्यार को दुनिया के साथ साझा करने की उनकी इच्छा ने उन्हें एक ब्रेकआउट स्टार बना दिया है। दूसरी ओर वह नवयुवक अपनी असफलता का जिम्मेदार समाज व सरकार को समझता है ! यह भी तो हो सकता है उसने किसी ऐसी जगह से डिग्री हासिल की हो जिसकी मान्यता  ही ना हो ! या फिर किसी तरह सिर्फ डिग्री हासिल कर ली हो और काम की कसौटी पर खरा ही ना उतर पा रहा हो ! जो भी हो यह विज्ञापन अपने निर्माता की ओछी सोच को बेपर्दा कर रहा है !   

भले ही यह रियल और रील की बात है पर सोच की दिशा तो साफ दिखाई पड़ रही है ! वैसे भी कोई भी सरकार, वादे भले ही करती रहे, देश के सभी युवाओं को नौकरी दे सकती है ? यदि ऐसा कहा जाता है तो वह सिर्फ और सिर्फ झूठ है ! युवाओं को खुद अपने पैरों पर खड़ा होना होगा ! किसी का मुंह ना जोहते हुए, किसी के आश्वासनों पर इन्तजार ना करते हुए, जो भी काम हो उससे शुरुआत करनी होगी ! अपने पर विश्वास करना होगा ना कि नेताओं के खोखले वादों पर !    

रविवार, 7 अप्रैल 2024

ठ से ठठेरा ! कौन है यह ठठेरा ?

ठठेरा एक हिन्दू जाति है, जो परम्परागत रूप से चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी राजपूत हैं। ये लोग अपने को सहस्त्रबाहु का वंशज मानते हैं। इनके अनुसार जब परशुराम जी ने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने का प्रण लिया तो बहुतेरे लोगों ने अपनी पहचान छुपा, बर्तनों का व्यवसाय शुरू कर दिया। जो आज तक चला आ रहा है। कुछ लोग अपने को मध्यकालीन हैहय वंशी भी मानते हैं..............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

कल शाम पार्क में घूमते हुए एक बाप-बेटे की बातचीत के कुछ ऐसे अंश मेरे कानों में पड़े कि मैं सहसा चौंक गया ! युवक अपने बच्चे को हिंदी वर्णमाला के अक्षरों से परिचित करवा रहा था। आजकल के अंग्रेजियत के समय में यह एक दुर्लभ वार्तालाप था सो मेरा सारा ध्यान उन पर ही अटक कर रह गया और मैं यथासंभव उनके साथ ही चलने लगा। कुछ ही देर में "ट वर्ग" की बारी आ गयी। युवक के 'ठ' से 'ठठेरा' बतलाने और बालक द्वारा उसका अर्थ पूछने पर युवक ने बताया, यूटेंसिल्स का काम करने वाले को हिंदी में ठठेरा कहते हैं। यह अर्थ आज की पीढ़ी के अधिकांश लोगों को पता नहीं होगा ! बालक की ठठेरा-ठठेरा की रट सुनते हुए मैं उनसे आगे निकल गया। 
सच बताऊँ तो मुझे पता नहीं था कि पचासों साल पहले पुस्तक की तस्वीर में एक आदमी को बर्तन के साथ बैठा दिखा हमें पढ़ाया गया 'ठ' से 'ठठेरा' अभी तक वर्णमाला में कायम है ! जरा सा पीछे लौटते हैं ! पंजाब का फगवाड़ा शहर ! बालक रूपी मैं, अपने ददिहाल गया हुआ था। शाम को काम से लौटने पर दादाजी मुझे बाजार घुमाने ले जाते थे। उन दिनों वहाँ बाजार के अलग-अलग हिस्सों में एक जगह, एक ही तरह की वस्तुओं की दुकाने हुआ करती थीं। जैसे मनिहारी की कुछ दुकाने एक जगह, कपड़ों की एक जगह, आभूषणों की एक जगह वैसे ही बर्तनों का बाजार में अपना एक हिस्सा था, उसे ठठेरेयां दी गली या ठठेरा बाजार कहा जाता था। 
बाजार शुरू होते ही पीतल, तांबे, कांसे के बर्तनों पर लकड़ी की हथौड़ियों से काम करते लोग और उनसे उत्पन्न तेज और कानों को बहरा  कर देने वाली ठक-ठन्न-ठननं-ठक-ठन्न की लय-बद्ध आवाजें एक अलग ही समां बांध देती थीं। यह ठठेरों के साथ मेरा पहला परिचय था। तब से सतलुज में काफी पानी बह गया है। तांबे-पीतल-कांसे के बर्तन चलन से बाहर हो चुके हैं ! कांच-प्लास्टिक-मेलामाइन-बॉन चाइना का जमाना आ गया है, ऐसे में तब ठठेरों का क्या हुआ ?


यही सोच कर जब हाथ-पैर मारे, पुस्तकें खंगालीं तो हैरत में डालने वाली जानकारी सामने आई। पता चला कि ठठेरा एक हिन्दू जाति है, जो परम्परागत रूप से चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी राजपूत हैं; जो अपने को सहस्त्रबाहु का वंशज मानते हैं। जो वाल्मीकि रामायण के अनुसार, प्राचीन काल में महिष्मती (वर्तमान महेश्वर) नगर के राजा कार्तवीर्य अर्जुन थे। उन्होंने भगवान विष्णु के अवतार दत्तात्रेय को प्रसन्न कर वरदान में उनसे 1 हजार भुजाएं मांग लीं। इसी से उनका नाम सहस्त्रबाहु अर्जुन पड़ गया था। मान्यता चली आ रही है कि जब परशुराम जी ने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने का प्रण लिया तो बहुतेरे लोगों ने अपनी पहचान छुपा बर्तनों का व्यवसाय शुरू कर दिया। जो आज तक चला आ रहा है। कुछ लोग अपने को मध्यकालीन हैहय वंशी भी कहते हैं। कुछ भी हो आज इस कारीगर, शिल्पकार, दस्तकार शिल्पियों की पहचान विश्व भर में हो गई है, जब 2014 में यूनेस्को ने इनके कांसे और ताम्र शिल्प को भारत की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता दे दी। करीब 47 उपजातियों में अपनी पहचान कायम रखे ये लोग वैसे तो देश-दुनिया में हर जगह के निवासी हैं पर मुख्यत: इनका वास पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश व राजस्थान में है। 

तो आज से जब भी "ठ" से "ठठेरा" पढ़ने या उसका अर्थ बतलाने का संयोग हो तो एक बार उनके समृद्ध इतिहास का स्मरण जरूर कर लें।  

बुधवार, 27 मार्च 2024

विलुप्ति की कगार पर पारंपरिक कलाएं, बीन वादन

आए दिन कोई ना कोई कलाकार, स्टैंडिंग कॉमेडियन या कोई संस्था अपने साथ कुछ लोगों को साथ ले विदेश में कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं, ऐसे लोग यदि अपने साथ बीन जैसी विलुप्त होती पारंपरिक विधाओं के किसी एक कलाकार को भी साथ ले जाएं तो इन लोक कलाओं को विलुप्त होने से कुछ हद तक बचाया जा सकता है ! यदि सरकार और सरकारी संस्थाएं सचमुच ऐसे कलाकारों का सरंक्षण चाहती हैं तो वे एक नियम ही बना दें कि मनोरंजन के लिए जाने वाले हर ग्रुप को कम से कम एक ऐसे कलाकार को ले जाना आवश्यक है.......!    

#हिन्दी_ब्लागिंग 

हमारा देश अपनी पारंपरिक विविधताओं के लिए दुनिया भर में विख्यात है। यहां जितनी विविधताएं हैं, उतनी ही विविध कलाएं भी हैं। हर इलाके या राज्य की इस क्षेत्र में अपनी-अपनी विरासत है, फिर चाहे वह नृत्य हो, वादन हो, संगीत हो या लोकनाट्य हो। हर एक कला का अपना समृद्ध इतिहास और सांस्कृतिक महत्व है। पर खेद का विषय है कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में कुछ श्रमसाध्य, जटिल व दुष्कर पारंपरिक कलाएं, वक्त के साथ ताल-मेल ना बैठा पाने के कारण धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर आ खड़ी हुई हैं ! ऐसी ही एक कला है, बीन वादन !

बीन 
पिछले दिनों अपनी संस्था RSCB के सौजन्य से हरियाणा के झज्जर जिले के एक पिकनिक स्थल जॉय गाँव जाने का अवसर मिला था। इस तरह के मनोरंजन स्थलों पर इनके निर्माता अपने आबालवृद्ध सभी तरह के ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों के साथ-साथ खेलों और कार्यक्रमों का भी इंतजाम कर रखते हैं। यहां भी इस तरह के कई आयोजनों में एक था बीन वादन। जी हां, वही बीन जिसकी फ़िल्मी धुन पचासों साल के बाद आज भी संगीत प्रेमियों के दिल-ओ-दिमाग पर छाई हुई है, जबकि वह असली बीन थी भी नहीं ! 

मुकेश जी, डॉ. गोयल व हीरा लाल जी के साथ  
उस दिन जॉय गाँव में घूमते-घूमते मैं, डॉ गोयल और हीरा लाल जी, अपनी पारंपरिक वेश-भूषा में अकेले बैठे श्री मुकेश नाथ जी के पास जा पहुंचे। अति विनम्र और मृदुभाषी मुकेश जी का बातों-बातों में, उपेक्षित होते बीन वादन को लेकर दर्द उभर आया ! हालांकि इसी बीन की बदौलत वे एक बार इटली में सम्मानित हो चुके हैं पर धीरे-धीरे पहचान खो रही अपनी इस पुश्तैनी कला के भविष्य को लेकर वे खासे चिंतित भी हैं ! उन्होंने हमें इस वाद्य पर जो धुनें सुनाईं, वे किसी को भी मंत्रमुग्ध करने की क्षमता रखती हैं ! उन्होंने इस साज की बेहतरी के लिए अपनी तरफ से कुछ बदलाव भी किए हैं। यू-ट्यूब (Haryana Jogi Music) पर भी उनको देखा-सुना जा सकता है।  

मुकेश नाथ जी 
मुकेश नाथ जी के परिवार में बीन वादन की कला पीढ़ियों से चली आ रही है। कुछ कारणों से वे स्कूली शिक्षा तो हासिल नहीं कर पाए, पर इस वाद्य की वादन विधा, जो उन्होंने अपने दादा और पिता से सीखी, उसमें वे पूरी तरह से पारंगत हैं। यही निपुणता 2007 में उन्हें केरल के एक संगीत ग्रुप के साथ हफ्ते भर के लिए विदेश, इटली, तक भी ले गई थी। उस सम्मान का पूरा श्रेय वे बीन को ही देते हैं। पर इसके साथ ही वर्तमान पीढ़ी द्वारा इस कला से बढ़ती दूरी उन्हें दुखी भी करती है ! उनके दो बेटे हैं जिनमें छोटे उमेश नाथ, जिन्होंने दसवीं तक शिक्षा प्राप्त की है वही इसमें थोड़ी-बहुत रूचि दिखाते हैं, उनका ज्यादा ध्यान ड्रम वादन पर है। उमेश के अनुसार वे पारंपरिक कला को सहेजना तो चाहते हैं, पर जी तोड़ मेहनत और समय देने के बावजूद उतनी आमदनी नहीं होती कि सुचारु रूप से घर चलाया जा सके ! 

मुकेश जी अपने बेटे उमेश के साथ 
मुकेश नाथ जी का मानना है कि आज के बच्चे उतनी मेहनत से कतराते हैं, जितनी इस वाद्य में जान फूंकने के लिए जरुरी है ! वैसे भी यह पूरे शारीरिक दम-ख़म की मांग करता है। इसे बजाने के लिए फेफड़ों का अत्याधिक मजबूत होना अति आवश्यक है। समय भी अपनी पूरी दावेदारी रखता है ! पर वे आमदनी की बात पर अपने बेटे से पूरी तरह सहमत हो जाते हैं ! यही वह कारण है जिसकी वजह से जहां उनके पैतृक गांव में घर-घर में बीन वादक होते थे, अब वहाँ गिने-चुने पांच-सात लोग ही रह गए हैं ! 

बीन अपने एक नए उपकरण के साथ 
हालांकि सुना गया है कि भारतीय जन नाट्य संघ #IPTA देश की पहचान गंवाती प्राचीन कलाओं को सहेजने का प्रयास कर रही है पर उसमें सक्षम देश वासियों का सहयोग भी जरुरी है। आए दिन कोई ना कोई कलाकार, स्टैंडिंग कॉमेडियन या कोई संस्था अपने साथ कुछ लोगों को साथ ले विदेश में कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं, ऐसे लोग यदि अपने साथ बीन जैसी विलुप्त होती विधाओं के किसी एक कलाकार को भी साथ ले जाएं तो इन पारंपरिक कलाओं को विलुप्त होने से कुछ हद तक रोका जा सकता है ! यदि #भारत_सरकार और #संस्कृति_मंत्रालय या दूसरी #सरकारी_संस्थाएं सचमुच ऐसे कलाकारों का सरंक्षण चाहती हैं तो वे एक नियम ही बना दें कि मनोरंजन के लिए विदेश जाने वाले हर ग्रुप को कम से कम एक ऐसे कलाकार को ले जाना आवश्यक है, पारंपरिक कला से जुड़ा हो। यदि ऐसा हो सके तो हम अपनी विलुप्त विरासतों को संरक्षित तो कर ही सकेंगे साथ ही उपार्जन की कमी के कारण विमुख होते लोक कलाकारों की हौसला-अफ़जाई भी कर सकेंगे।  

बुधवार, 13 मार्च 2024

अवमानना संविधान की

आज CAA के नियमों को लेकर जैसा बवाल मचा हुआ है, उसका मुख्य कारण उसके नियम नहीं हैं बल्कि हिन्दू विरोधी नेताओं की शंका है, जिसके तहत उन्हें लगता है कि गैर मुस्लिम लोगों को नागरिकता मिल जाने से उनका वोट बैंक कमजोर पड़ जाएगा ! उन्हें अपने मतलब के अंधकार में उन लाखों लोगों का दर्द नहीं दिखलाई पड़ता जो वर्षों-वर्ष से बिना किसी पहचान के निर्वासित जीवन जीने को मजबूर हैं ! ये लोग सीधे-सीधे तो कह नहीं सकते तो उसी संविधान की आड़ ले कर इस कानून का विरोध कर रहे हैं जो उन्हें ऐसा करने का अधिकार ही नहीं देता ! पर वे ऐसा अभी भी आम जनता को बौड़म समझने वाली सोच की तहत किए जा रहे हैं..........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

एक होता है संविधान, जिसके अनुसार देश चलता है ! एक होता है न्यायालय, जिस पर देश की कानून व न्याय व्यवस्था की जिम्मेवारी होती है। न्यायालय का शिखर है सर्वोच्च न्यायालय ! यही सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक होता है ! अब देखने की बात यह है कि जब न्यायालयों के संचालकों, महामहिमों की बात की जरा सी अवहेलना पर किसी पर भी मानहानि का मुकदमा चल सकता है तो उनके संरक्षण में रहने वाले संविधान, के विरुद्ध आचरण करने वालों पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं की जाती ! क्यों उसका मजाक बनाया जाता है ? उसकी गलत आड़ लेकर अपना मतलब सिद्ध करने वालों को कोर्ट क्यों नहीं तुरंत बेनकाब करता ? जबकि संविधान सर्वोपरि है, गुरुग्रंथ है, उसकी कसमें खाई जाती हैं !

ज्यादातर राजनीति करने वालों का मुख्य लक्ष्य सत्ता हासिल करने का ही होता है ! उसके लिए वे किसी भी हथकंडे को काम में लाने में नहीं हिचकते ! इसमें कोई भी दल दूध का धुला नहीं होता ! वर्षों से मौकापरस्त, सत्ता पिपासु लोग समयानुसार संविधान की दुहाई दे कर जनता को गुमराह करते रहे हैं ! जबकि जनता ज्यादातर अनपढ़ होती थी ! आज भी अनपढ़ को तो छोड़िए, लाखों पढ़े-लिखे लोगों को भी संविधान के "स'' का पता नहीं है ! पर अब जिस तरह से देश में जागरूकता दस्तक दे रही है,  हर तरफ बदलाव दिख रहा है, खासकर शिक्षा के क्षेत्र में ! बच्चे भी पहले से ज्यादा समझदार और जानकार हो गए हैं, तो अब होना यह चाहिए कि संविधान की मुख्य बातें स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल कर दी जाएं ! जिससे वे जब बड़े हो कर जिम्मेदार नागरिक बनें तो कोई भी ऐरा-गैरा उन्हें बेवकूफ ना बना सके ! हालांकि अभी भी हमारी आँखों पर धर्म, जाति, भाषा, सम्प्रदाय की पट्टी बंधी हुई है। अभी भी चुनावों में यह मुख्य कारक होते हैं फिर भी कोशिश तो जारी रहनी ही चाहिए ! इसके लिए सबसे अहम है जागरूकता और उसके लिए जरुरी है शिक्षा और यही वह अस्त्र है जिसके द्वारा हर तरह की कुटिलता का नाश संभव हो सकता है। सत्य की सदा जय हो सकती है। 

आज नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के नियमों को लेकर जैसा बवाल मचा हुआ है, उसका मुख्य कारण उसके नियम नहीं हैं बल्कि हिन्दू विरोधी नेताओं की शंका है, जिसके तहत उन्हें लगता है कि गैर मुस्लिम लोगों को नागरिकता मिल जाने से उनका वोट बैंक कमजोर पड़ जाएगा ! उन्हें अपने मतलब के अंधकार में उन लाखों लोगों का दर्द नहीं दिखलाई पड़ता जो वर्षों-वर्ष से बिना किसी पहचान के निर्वासित जीवन जीने को मजबूर हैं ! ये लोग सीधे-सीधे तो कह नहीं सकते तो उसी संविधान की आड़ ले कर इस कानून का विरोध कर रहे हैं जो उन्हें ऐसा करने का अधिकार ही नहीं देता ! पर वे ऐसा अभी भी आम जनता को बौड़म समझने वाली सोच की तहत किए जा रहे हैं ! विडंबना है कि वे उसी संविधान का गलत सहारा लेने की कोशिश कर रहे हैं, जिसकी शपथ ले वे सत्ता की कुर्सी पर काबिज हुए हैं ! 

जो भी दल सत्ता में होता है वह चुनावों में अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए हर दांव चलता है, हर पैंतरा आजमाता है ! ऐसे में विरोधी दलों के नेता, जो खुद उसी खेल के खिलाड़ी हैं, ऐसे दांव-पेंच वे खुद भी बखूबी आजमाते रहते हैं, उनको अपनी अलग मजबूत रणनीति बना मुकाबला करना चाहिए नाकि सिर्फ सत्ता पक्ष को गरियाते हुए चिल्ल्पों मचा के अपना ही जुलुस निकलवाना चाहिए ! जनता तो इनका तमाशा देख ही रही है पर आश्चर्य है कि संविधान के संरक्षक क्यों चुप हैं.........!

सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

मैनिकिन (पुतले) राजनीति के

सच तो यह है कि जैसे कपड़ों की दुकानों के बाहर मानवाकार पुतलों (Mannequins) को कपड़े पहना कर ग्राहकों को आकृष्ट करने का उपक्रम किया जाता है कुछ वैसे ही राजनीतिक पार्टियां इन प्रसिद्ध हस्तियों को अपना चिन्ह दे वोटरों को लुभाने की चेष्टा करती रहती हैं। उनके माथे पर अपने दल का चिन्ह अंकित कर, किसी भी आड़ी-टेढ़ी गली से प्रवेश दिला, उन्हें देश के सदनों में ला कर शो-पीस की तरह सजा दिया जाता है ! ऐसी मूर्तियों को इससे कोई मतलब नहीं होता कि जिस दल का ये प्रतिनिधित्व कर रही हैं उसके नेता और उनका सिद्धांत देश और समाज के लिए हितकर हैं भी कि नहीं ..............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

आज अखबार में एक खबर थी कि आगामी चुनावों में दिल्ली की एक सीट पर फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार को उतारा जा सकता है ! पता नहीं क्यों ऐसे अनगिनत नकारात्मक प्रयोगों के बावजूद फिल्म वालों से राजनीतिक दलों का मोह भंग नहीं होता ! आजादी के बाद से ही यह सिलसिला जारी है ! शो जगत के वाशिंदे सदा चर्चा में बने रहने के लिए अपने करियर के अवसान को भांप राजनीति की ओर उन्मुख होने लगते हैं ! जोड़-तोड़ और अपने विगत की लोकप्रियता की बैसाखियों के सहारे उन्हें राजदरबार में प्रवेश भी मिल जाता है ! पर इक्के-दुक्के अपवाद को छोड़ आजादी के बाद से ऐसे लोग सिर्फ अपना भविष्य ही सुधारने में सफल रहे हैं, देश तो दूर समाज के हित के लिए कभी कोई उपलब्धि हासिल नहीं करवा पाए !   

मैनिकिन

सब जानते-बूझते भी सिर्फ उनकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए हर राजनीतिक दल अपने पलक-पांवड़े बिछाए रहता है ! उनके माथे पर अपने दल का चिन्ह अंकित कर, किसी भी आड़ी-टेढ़ी गली से प्रवेश दिला, देश के सदनों में ला कर शो-पीस की तरह सजा दिया जाता है ! ऐसी मूर्तियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता या मतलब होता कि जिस दल का ये प्रतिनिधित्व कर रही हैं, उसके नेता और उनका सिद्धांत देश और समाज के लिए हितकर हैं भी कि नहीं ! इनको तो सिर्फ अपनी फोटो खिंचवाने, छुटभैयों को औटोग्राफ देने और अपने रसूख का प्रदर्शन कर, चर्चा में बने रहने का सुख लेना होता है। सच तो यह है कि जैसे कपड़ों की दुकानों के बाहर मानवाकार पुतलों (Mannequins) को कपड़े पहना कर ग्राहकों को आकृष्ट करने का उपक्रम किया जाता है कुछ वैसे ही राजनीतिक पार्टियां इन प्रसिद्ध हस्तियों को अपना चिन्ह दे वोटरों को लुभाने की चेष्टा करती रहती हैं ! 

ऐसे दसियों नाम हैं जिन्होंने सदनों में शायद ही कभी मुंह खोला हो ! कई तो सत्र में आते ही नहीं ! बहुतेरे ऐसे हैं जो अपने संसदीय क्षेत्रों में जाने से गुरेज करते हैं ! इस सब के बावजूद राजनीतिक दल उनके तथाकथित आभा मंडल से चौंधिया कर बार-बार उन्हें अपना टिकट थमाते रहते हैं ! अभी एक नेत्री को अपने चार कार्यकालों में कोई भी उपलब्धि न होने के बावजूद पांचवीं बार टिकट दिए जाने पर काफी बहसबाजी हुई थी ! इस वर्ग में अधिकांश लोग ऐसे ही हैं जो देश के इन सम्मानित सदनों में, आम इंसान की गाढ़ी कमाई के एवज में सिर्फ अपने चेहरे, अपने कपड़ों, अपने आभूषणों, अपने रसूख का प्रदर्शन करने आते हैं ! 

सत्ता पक्ष समेत अन्य समस्त पार्टियां भी चुनाव के समय इस पहलू पर विचार करते हुए अपने ऐसे ही उम्मीदवार का चयन करें जो देश, समाज के लिए कुछ कर गुजरने का हौसला रखता हो ना कि सिर्फ अपने को स्थापित करने का ! जनता का क्या ठिकाना, ऐसा न हो कि आगामी कुछ सालों में जनहित की गुहार लगाते हुए कोई सिरफिरा सर्वोच्च न्यायालय में इस विषय पर अर्जी ही दाखिल कर दे.....................! 

--सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

मैं बसंत

बसंत के चेहरे पर स्मित हास्य था, बोला मैं तो हर साल आता हूँ। आदिकाल से ही जब-जब शीत ऋतु के मंद पड़ने और ग्रीष्म के आने की आहट होती है, मैं पहुंचता रहा हूँ। सशरीर ना सही पर अपने आने का सदा प्रमाण देता रहा हूँ ! आपने भी जरूर महसूस किया ही होगा कि मेरे आगमन से सरदी से ठिठुरी जिंदगी एक अंगडाई ले, आलस्य त्याग जागने लगती है। जीवन में मस्ती का रंग घुलने लगता है........!


#हिन्दी_ब्लागिंग 

अभी पौ फटी नहीं थी ! मौसम में ठंड की कुनकुनाहट थी ! रात में सोने में देर हो जाने के कारण अभी भी अर्द्धसुप्तावस्था की हालत बनी हुई थी, ऐसे में दरवाजे पर दस्तक सी सुनाई पड़ी ! सच और भ्रम का पता ही नहीं चल पा रहा था ! दोबारा आहट सी हुई लगा कि कोई है ! इस बार उठ कर द्वार खोला तो एक गौर-वर्ण अजनबी व्यक्ति को सामने खड़ा पाया ! आजकल के परिवेश से उसका पहनावा कुछ अलग था ! धानी धोती पर पीत अंगवस्त्र, कंधे तक झूलते गहरे काले बाल, कानों में कुंडल, गले में तुलसी की माला, सौम्य-तेजस्वी चेहरा, होठों पर आकर्षित कर लेने वाली मुस्कान ! इसके साथ ही जो एक चीज महसूस हुई वह थी एक बेहद हल्की सुवास, हो सकता है वह मेरे प्रांगण में लगे फूलों से ही आ रही हो, पर थी तो सही ! 
मेरे चेहरे पर प्रश्न सूचक जिज्ञासा देख उसने मुस्कुराते हुए कहा, अंदर आने को नहीं कहिएगा ?"

उनींदी सी हालत ! अजनबी व्यक्ति, सुनसान माहौल !! पर आगंतुक के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि ऊहापोह की स्थिति में भी मैंने एक तरफ हट कर उसके अंदर आने की जगह बना दी !

बैठक में बैठने के उपरांत मैंने पूछा, आपका परिचय नहीं जान पाया हूँ !"
  
वह मुस्कुराया और बोला, मैं बसंत !"

बसंत ! कौन बसंत ?"  इस चेहरे और नाम का कोई भी परिचित मुझे याद नहीं आ रहा था !

मैंने कहा, माफ कीजिएगा, मैं अभी भी आपको पहचान नहीं पाया हूँ !"

अरे भाई, वही बसंत देव, जिसके आगमन की खुशी में आप सब पंचमी मनाते हैं !"

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था ! क्या कह रहा है सामने बैठा इंसान !! यह कैसे हो सकता है ?

घबराहट मेरे चेहरे पर साफ झलक आई होगी, जिसे देख वह बोला, घबराइए नहीं, मैं जो कह रहा हूँ, वह पूर्णतया सत्य है !" 

मेरे मुंह में तो जैसे जबान ही नहीं थी ! लौकिक-परालौकिक, अला-बला जैसी चीजों पर मेरा विश्वास नहीं था ! पर जो सामने था उसे नकार भी नहीं पा रहा था ! सच तो यह था कि मेरी रीढ़ में सिहरन की लहर सी उठने लगी थी ! एक आश्चर्य की बात यह भी थी कि जरा सी आहट पर टूट जाने वाली, श्रीमती जी की कच्ची नींद पर, मेरे उठ कर बाहर आने या हमारे बीच के  वार्तालाप की ध्वनि का अभी तक कोई असर तक नहीं हुआ था !

परिस्थिति से उबरने के लिए मैंने आगंतुक से कहा, ठंड है, मैं आपके लिए चाय का इंतजाम करता हूँ !" सोचा था इसी बहाने श्रीमती जी को उठाऊंगा, एक से भले दो ! 

पर अगले ने साफ मना कर दिया कि मैं कोई भी पेय पदार्थ नहीं लूंगा, आप बैठिए !" 

मेरे पास कोई चारा नहीं था। फिर भी कुछ सामान्य सा दिखने की कोशिश करते हुए मैंने पूछा, कैसे आना हुआ ?"

बसंत के चेहरे पर स्मित हास्य था, बोला मैं तो हर साल आता हूँ ! आदिकाल से ही जब-जब शीत ऋतु के मंद पडने और ग्रीष्म के आने की आहट होती है, मैं पहुंचता रहा हूँ ! सशरीर ना सही पर अपने आने का सदा प्रमाण देता रहा हूँ । आपने भी जरूर महसूस किया ही होगा कि मेरे आगमन से सरदी से ठिठुरी जिंदगी एक अंगडाई ले, आलस्य त्याग जागने लगती है! जीवन में मस्ती का रंग घुलने लगता है! सर्वत्र माधुर्य और सौंदर्य का बोलबाला हो जाता है ! वृक्ष नये पत्तों के स्वागत की तैयारियां करने लगते हैं ! सारी प्रकृति ही मस्ती में डूब जाती है ! जीव-जंतु, जड़-चेतन सब में एक नयी चेतना आ जाती है ! हर कोई एक नये जोश से अपने काम में जुटा नज़र आता है ! मौसम की अनुकूलता से मानव जीवन में भी निरोगता आ जाती है ! मन प्रफुल्लित हो जाता है, जिससे चारों ओर प्रेम-प्यार, हास-परिहास, मौज-मस्ती, व्यंग्य-विनोद का वातावरण बन जाता है ! इस मधुमास या मधुऋतु का, जिसे आपलोग फागुन का महीना कहते हो ! कवि, गीतकार, लेखक आकंठ श्रृंगार रस में डूब कर अपनी रचनाओं में चिरकाल से वर्णन करते आए हैं।"  इतना कह वह चुप हो गया। जैसे कुछ कहना चाह कर भी कह ना पा रहा हो। 

मैं भी चुपचाप उसका मुंह देख रहा था। उसके मेरे पास आने की वजह अभी भी अज्ञात थी।

वह मेरी ओर देखने लगा। अचानक उसकी आँखों में एक वेदना सी झलकने लगी थी। एक निराशा सी तारी होने लगी थी। 

उसने एक गहरी सांस ली और कहने लगा, पर अब सब धीरे-धीरे बदलता जा रहा है ! ऋतुएँ अपनी विशेषताएं खोती जा रही हैं, उनका तारतम्य बिगड़ता जा रहा है ! इसी से मनुष्य तो मनुष्य, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं को भी गफलत होने लगी है ! सबकी जैविक घड़ियों में अनचाहे, अनजाने बदलावों के कारण लोगों को लगने लगा है कि अब बसंत का आगमन शहरों में नहीं होता ! गलती उन की भी नहीं है ! बढ़ते प्रदूषण, बिगड़ते पर्यावरण, मनुष्य की प्रकृति से लगातार बढती दूरी की वजह से मैं कब आता हूँ, कब चला जाता हूँ, किसी को पता ही नहीं चलता ! जब कि मैं तो अबाध रूप से सारे जग में संचरण करता हूँ ! यह दूसरी बात है कि मेरी आहट प्रकृति-विहीन माहौल और संगदिलों को सुनाई नहीं पडती। दुनिया में यही देश मुझे सबसे प्यारा इसलिए है क्योंकि इसके हर तीज-त्यौहार को आध्यात्मिकता के साथ प्रेम और भाई-चारे की भावना से जोड़ कर मनाने की परंपरा रही है ! पर आज उस सात्विक उन्मुक्त वातावरण और व्यवहार का स्थान व्यभिचार, यौनाचर और कुठाएं लेती जा रही हैं ! भाईचारे, प्रेम की जगह नफरत और बैर ने ले ली है ! मदनोत्सव तो काम-कुंठाओं से मुक्ति पाने का प्राचीन उत्सव रहा है, इसे मर्यादित रह कर शालीनता के साथ बिना किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाए, बिना किसी को कष्ट या दुख दिए मनाने में ही इसकी सार्थकता रही है ! पर आज सब कुछ उल्टा-पुल्टा, गड्ड-मड्ड होता दिखाई पड़ रहा है ! प्रेम की जगह अश्लीलता, कुत्सित चेष्टाओं ने जगह बना ली है ! लोग मौका खोजने लगे हैं इन तीज-त्योहारों की आड़ लेकर अपनी दमित इच्छाओं, अपने पूर्वाग्रहों को स्थापित करने की !"
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कक्ष में सन्नाटा सा पसर गया ! लगा जैसे गहरी वेदना उसके अंदर घर कर बैठी हो ! कुछ देर के मौन के पश्चात वह मेरी ओर मुखातिब हो बोला, आज मेरा आपके पास आने का यही मकसद था कि यह समझा और समझाया जा सके सभी को कि यही वक्त है, गहन चिंतन का ! लोगों को अपने त्योहारों, उनकी विशेषताओं उनकी उपयोगिताओं के बारे में बताने का, समझाने का ! जिससे इन उत्सवों की गरिमा वापस लौट सके ! ये फकत एक औपचारिकता ना रह  जाएं, बल्कि मानव जीवन को सवांरने का उद्देश्य भी पूरा कर सकें !"

कमरे में पूरी तरह निस्तबधता छा गई ! विषय की गंभीरता के कारण मेरी आँखें पता नहीं कब स्वतः ही बंद हो गईं। पता नहीं इसमें कितना वक्त लग गया ! तभी श्रीमती जी की आवाज सुनाई दी कि रात सोने के पहले तो अपना सामान संभाल लिया करो ! कागज बिखरे पड़े हैं ! कंप्यूटर अभी भी चल रहा है ! फिर कुछ इधर-उधर होता है तो मेरे पर चिल्लाते हो ! हड़बड़ा कर उठा तो देखा आठ बज रहे थे ! सूर्य निकलने के बावजूद धुंध, धुएं, कोहरे के कारण पूरी तरह रौशनी नहीं हो पा रही थी !

मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई, कमरे में मेरे सिवा और कोई नहीं था ! ऐसे बहुत वाकये और कहानियां पढ़ी हुई थीं, जिनमें किसी अस्वभाविक अंत को सपने से जोड़ दिया जाता है, पर अभी जो भी घटित हुआ था, वह सब मुझे अच्छी तरह याद था ! मन यह मानने को कतई राजी नहीं था कि मैंने जो देखा, महसूस किया, बातें कीं, वह सब रात के आर्टिकल की तैयारी और थके दिमाग के परिणाम का नतीजा था ! कमरे में फैली वह सुबह वाली हल्की सी सुवास मुझे अभी भी किसी की उपस्थिति महसूस करवा रही थी........!!

शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

रामायण का सबसे तिरस्कृत पात्र, मंथरा

कैकेई का अपनी इस चचेरी बहन के साथ बहुत लगाव तथा प्रेम था ! दोनों बचपन की सहलियां भी थीं ! एक-दूसरे के बिना उनका समय नहीं बीतता था ! इसीलिए मंथरा की ऐसी हालत देख, उसके भविष्य को ले कर कैकेई भी चिंतित व दुखी रहा करती थी ! इसीलिए अपने विवाह के पश्चात उसको अपने साथ अयोध्या ले आई थी ! परंतु उसके रंग-रूप को देख अयोध्यावासी उसे कैकई की बहन नहीं बल्कि मुंहलगी दासी ही समझते थे.......!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

महाग्रंथ रामायण में मंथरा का विवरण एक ऐसी महिला का है, जिसने श्री राम को वनवास दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ! इस संदर्भ में कई तरह की मान्यताएं प्रचलन में हैं ! कहीं उसका दुंदुभी नाम की गंधर्वी के रूप में उल्लेख है जो देवताओं की सहायक बन कैकई को उकसा कर श्री राम को वन भेजने का उपक्रम करती है, जिससे राक्षसों का नाश हो सके ! तो कहीं उसका भक्त प्रह्लाद के पुत्र विरोचन की पुत्री के रूप में उल्लेख है जो अपनी तथा राक्षस जाति की बदतर हालत का जिम्मेवार भगवान विष्णु को मान उनसे बदला लेने की ठान लेती है और त्रेता युग में पुनर्जन्म ले विष्णु जी के अवतार भगवान राम के जीवन को तहस-नहस कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करती है ! 

श्रीराम 
इसी संदर्भ में एक और कथा भी उल्लेखनीय है ! जिसके अनुसार कैकेई के पिता कैकेयराज अश्वपति का एक भाई था, जिसका नाम वृहदश्व था। उसकी एक बेहद खूबसूरत, विशाल नेत्रों वाली, बुद्धिमान, गुणवती बेटी थी, जिसका नाम रेखा था ! परंतु उसकी कुछ कमजोरियां भी थीं ! वह आत्ममुग्धता से बुरी तरह ग्रसित थी ! अपने आप से बेहद प्रेम करती थी ! अपने सौंदर्य पर उसे घमंड भी था ! उसकी चाहत थी कि उसका रूप-लावण्य कभी भी मलिन ना हो ! इसके लिए वह तरह-तरह उपचार व औषधियों का सेवन करती रहती थी ! इसी तरह के एक प्रयोग का उस पर विपरीत असर हो गया और उसके अंगों ने काम करना बंद कर दिया ! चिकित्सकों के अथक प्रयासों के बाद वह ठीक तो हो गई पर उसके शरीर की कांति जाती रही ! रूप-लावण्य तिरोहित हो गया ! चेहरा-मोहरा कुरूप हो कर रह गया तथा उसकी रीढ़ की हड्डी में स्थाई विकार आ गया, इसी कारण उसका नाम भी मंथरा पड़ गया ! इसी दोष के कारण उसका कभी विवाह भी नहीं हो सका ! इस सदमे से वह गहरे अवसाद में डूबती चली गई ! धीरे-धीरे नकारात्मकता उस पर बुरी तरह हावी हो गई ! बुद्धि-विवेक साथ छोड़ते चले गए ! 

रेखा/मंथरा 
कैकेई का अपनी इस चचेरी बहन के साथ बहुत लगाव तथा प्रेम था ! दोनों बचपन की सहलियां भी थीं ! एक-दूसरे के बिना उनका समय नहीं बीतता था ! इसीलिए मंथरा की ऐसी हालत देख, उसके भविष्य को ले कर कैकेई भी चिंतित व दुखी रहा करती थी ! इसीलिए अपने विवाह के पश्चात उसको अपने साथ अयोध्या ले आई थी ! परंतु उसके रंग-रूप को देख अयोध्यावासी उसे कैकई की बहन नहीं बल्कि मुंहलगी दासी ही समझते थे ! पर दशरथ की प्रिय रानी की सहचरी होने के कारण उसका सम्मान भी किया करते थे !  

षड्यंत्र 
समय के साथ जब मंथरा को श्री राम के राजतिलक के समाचार पता चला तो वह सोच में पड़ गई कि यदि महारानी कौशल्या का पुत्र राजा बनेगा तो कौशल्या राजमाता कहलाएगी और उनका स्थान अन्य रानियों से श्रेष्ठ हो जाएगा ! उनकी दासियां भी अपने आपको मुझसे श्रेष्ठ समझने लगेंगीं। इस समय कैकेयी राजा की सर्वाधिक प्रिय रानी है। राजमहल पर एक प्रकार से उसका शासन चलता है। इसीलिये राजप्रासाद की सब दासियां मेरा सम्मान करती हैं। किन्तु कौशल्या के राजमाता बनने पर वे मुझे हेय दृष्टि से देखने लगेंगीं। उनकी उस दृष्टि को मैं कैसे सहन कर सकूंगी ! मेरा जीवन तो और भी दूभर हो जाएगा ! इस विकृत सोच ने उसके कुटिल मष्तिष्क में एक षड्यंत्र की रुपरेखा तैयार कर दी ! 

दो वर 
अपनी साजिश को मूर्तरूप देने के चलते मंथरा ने कैकेई के कान भरे ! उसे कौशल्या के राजमाता बनने के पश्चात राजा दशरथ से दूर होने का डर दिखाया ! राम के राजा बनने के बाद उसके तथा भरत के अंधकारमय भविष्य का काल्पनिक भय दिखा उसे उकसाया ! इसके बाद जो हुआ उसे तो संसार ने भी देखा ! जो भी हो मंथरा के बिना तो राम कथा की कल्पना भी नहीं की जा सकती ! कहते हैं कि यह सब होने के पश्चात उसे अपने किए पर ग्लानि और पश्चाताप भी हुआ और वह राम के अयोध्या लौटने तक मुंह छुपा कर एकांत में पड़ी रही ! श्री राम ने वनवास से वापस आते ही उसके बारे में पूछा और उसके पास जा उसे स्नेहवश गले लगा उसके सारे अपराध क्षमा कर दिए !

नेत्र चिकित्सा का विश्वसनीय केंद्र 
वैसे हमारे प्राचीन ग्रंथों की कथाओं के साथ इतनी किंवदंतियां इस तरह जुड़ी हुई हैं कि भेद करना मुश्किल हो जाता है कि वास्तविकता क्या थी और कल्पना क्या है..........!

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